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________________ छट्ठा अध्ययन : महाचारकथा] [237 'ते जाणमजाणं वा०' व्याख्या-प्रतिज्ञाबद्ध होने पर भी साधक से हिंसा दो प्रकार से होनी संभव है-(१) जान में (2) अनजाने / जो जानबूझ कर हिंसा करता है, उसमें स्पष्टत: रागद्वेष की वृत्ति-प्रवृत्ति होती है, और जो अजाने हिंसा करता है, उसकी हिंसा के पीछे प्रमाद या अनुपयोग (असावधानता) होती है। हिंसा का परित्याग करने के दो मुख्य कारण प्रस्तुत गाथा (273) में निर्ग्रन्थों द्वारा हिंसा के परित्याग के दो मुख्य कारण बताए हैं-(१) सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता, चाहे वह विपन्न एवं अत्यन्त दु:खी ही क्यों न हो। (2) सभी जीव सुख चाहते हैं, दुःख नहीं, मरण अत्यन्त दुःखरूप प्रतीत होता है, यहाँ तक कि मृत्यु का नाम सुनते ही भय के मारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं / 14 द्वितीय प्राचारस्थान-सत्य (मृषावाद-विरमण) 274. अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया / हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं वयावए // 11 // 275. मुसाबाओ अ लोगम्मि, सव्वसाहूहि गरहिओ। अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए // 12 // [274] (निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी) अपने लिए या दूसरों के लिए, क्रोध से अथवा (मान, माया और लोभ से) या भय से हिंसाकारक (परपीडाजनक सत्य) और असत्य (मृषावचन) न बोले, (और) न ही दूसरों से बुलवाए, (और न बोलने वालों का अनुमोदन करे / / 11 / / [275] (इस समग्र) लोक में समस्त साधुओं द्वारा मृषावाद (असत्य) गहित (निन्दित) है और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है। अतः (निर्ग्रन्थ) मृषावाद का पूर्ण रूप से परित्याग कर दे // 12 // विवेचन-असत्याचरण क्या, उसका त्याग क्यों और कैसे ? -जिस वचन, विचार और व्यवहार (कार्य) से दूसरों को पीड़ा पहुंचती हो, जो वचनादि समग्रलोकगहित हो, वह असत्य है / प्रस्तुन दो गाथानों में असत्य भाषण के मुख्यतया क्रोध और भय इन दो कारणों का उल्लेख है। चूणिकार और वृत्तिकार ने इन दोनों को सांकेतिक मानकर तथा द्वितीय महाव्रत में निर्दिष्ट, क्रोध लोभ, भय और हास्य, इन चारों को परिगणित करके उपलक्षण से ('एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणं' इस न्याय से) इसके 6 कारण बताए हैं-(१) क्रोध से असत्य-जैसे 'तू दास है' ऐसा कहना, (2) मान से असत्य जैसे अबहुश्रुत होते हुए भी स्वयं को बहुश्रुत, शास्त्रज्ञ या पण्डित कहना या लिखना, (3) माया से असत्य-जैसे भिक्षाचर्या से जी चुराने के लिए कहना कि मेरे पैर में बहुत पीड़ा है, 13. 'जाणमाणो' नाम जेसि चितेऊण रागद्दोसाभिभूमो घाएइ अजाणमाणो नाम अपदुस्समाणो अणुवनोगेणं इंदियाइणावी पमातेण घातयति। -जिन. चणि, पृ. 217 14. (क) दसवेयालियसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 40 (ख) दश. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 324 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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