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________________ 236] [दशवकालिकसूत्र है / अज्ञान और प्रमाद से युक्त होने अथवा चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय के कारण मूढ और अज्ञ बना हुआ साधु साधुता से स्वतः पतित और भ्रष्ट हो जाता है।'' प्रथम प्राचारस्थान : अहिंसा 271. तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं / अहिंसा निउणा दिट्ठा, सवभूएसु संजमो // 8 // 272. जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा। __ तं जाणमजाणं वा, न हणे, न हणावए // 9 // 273. +सब्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं, न मरिज्जिउं / तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं // 10 // [271] (तीर्थकर) महावीर ने उन (अठारह प्राचारस्थानों) में प्रथम स्थान अहिंसा का कहा है, (क्योंकि) अहिंसा को (उन्होंने) सूक्ष्मरूप से (अथवा अनेक प्रकार से सुखावहा) देखी है / सर्वजीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है / / 8 / / [272] लोक में जितने भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी हैं; साधु या साध्वी, जानते या अजानते, उनका (स्वयं) हनन न करे और न ही (दूसरों से) हनन कराए; (तथा हनन करने वालों की अनुमोदना भी न करे / ) / / 6 / / [273] सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं / इसलिए निर्ग्रन्थ साधु (या साध्वी) प्राणिवध को घोर (भयानक जानकर) उसका परित्याग करते हैं / 10 / / विवेचन-अहिंसा की प्राथमिकता और विशेषता-प्रस्तुत तीन गाथाओं में प्रथम प्राचारस्थानरूप अहिंसा को प्राथमिकता और उसका पूर्णरूपेण आचरण निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी के लिए क्यों आवश्यक है ? इसका सहेतुक प्रतिपादन किया गया है / मिउणा निउणं : दो अर्थ (1) जिनदासणि के अनुसार-'निउणा' पाठ मानकर उसे अहिंसा का विशेषण माना है, निपुणा का अर्थ किया है-सब जीवों की हिंसा का सर्वथा त्याग करना / जो साधु औद्देशिक आदि दोषों से युक्त आहार करते हैं, वे पूर्वोक्त कारणों से हिंसादोषयुक्त हो जाते हैं / अथवा 'निपुणा' का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार है--प्राधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार के अपरिभोग (असे वन) तथा कृत-कारित आदि रूप से हिंसा के परिहार के कारण सूक्ष्म है / अगस्त्यचूणि के अनुसार 'निउणं' क्रियाविशेषण-पद है, जो 'दिट्ठा' क्रिया का विशेषण है। निपुणं का अर्थ है-सूक्ष्मरूप से / 11. दशव. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी. म.) पृ. 319 पाठान्तर- x निउणं। + सव्व जीवा। पाणवहं। 12. (क) 'निउणा' नाम सधजीवाणं, सब्वे वाहिं अणववाएण, जे गं उ सियादीणि भजति, ते तहेव हिंसगा भवंति। -जि. चु., पृ. 217 (ख) प्राधाकर्माद्यपरिभोगतः कृत-कारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा / --हारि. वृत्ति, पत्र 196 (ग) 'निपुणं'—सव्वपाकारं सव्वसत्तगता इति / ' -अग. चूर्णि, पृ. 144 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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