________________ छट्ठा अध्ययन : महाचारकथा] [235 समायुक्त-गुरु के सान्निध्य में रहकर ग्रहणशिक्षा (सूत्र और अर्थ का अभ्यास करना) और प्रासेवन शिक्षा (आचार का सेवन और अनाचार का वर्जन) करने वाला / (5) वियक्खणो-विचक्षण-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पात्र और परिस्थिति का आकलन करने में निपुण / इस प्रकार के गुणों से सुशोभित महान् चारित्रात्मा आचार्य या गणी ही अपने शान्त, शीतल, मधुर उपदेश या समाधान से सुखशान्ति का संदेश देते हैं। __ निर्ग्रन्थ-आचार की विशेषता यहाँ दो सूत्र गाथाओं (267-2680) में मुमुक्षु निर्ग्रन्थों के आचार की विशेषता का प्रतिपादन किया गया है। विशेषण ये हैं-(१) भीम-कठिन कर्म-शत्रुओं को खदेड़ने में यह आचार भयंकर है, कर्ममल धोने के लिए रौद्र है। (2) दुरधिष्ठित-दुर्बल (कायर) आत्माओं के लिए इस प्राचार का धारण (स्वीकार) करना शक्य नहीं है अतः कायर पुरुषों के लिए यह आचार दुर्धर है। (3) सकल-सम्पूर्ण / (4) लोक में परम दुश्चर--यह आचार समग्र जीवलोक में पालन करने में अत्यन्त दुश्चर-दुष्कर है। (5) विपुलस्थान के भाजन निर्ग्रन्थों का आचार-यह प्राचार केवल मोक्षस्थान को प्राप्त करने में योग्यतम निर्ग्रन्थों का है। (6) सभी प्राचारों में अद्वितीय तथा सर्वकालानुपम-जैन निर्ग्रन्थाचार के सदृश अन्यमतीय आचार नहीं है, न हुया है, न होगा। सखुड्डगवियत्ताणं० आदि पदों के अर्थ और व्याख्या-खुड्डग-क्षुद्रक का अर्थ है-बालक और वियत्त-व्यक्त का अर्थ है-वृद्ध, अर्थात् सबाल-वृद्ध / वाहियाणं-व्याधित / रोगग्रस्त अथवा स्वस्थ, किसी भी अवस्था में क्यों न हों, जो भी गुण अर्थात् प्राचारगोचर के नियम हैं, उन्हें अखण्ड और प्रस्फुटित रूप से पालन करना या धारण करना चाहिए। अखण्ड का अर्थ है—देश (प्रांशिक) विराधना न करना, अफडिया (अस्फटित) का अर्थ है-पूर्णतः (सर्वथा) विराधना न करना / निष्कर्ष यह है कि इन प्राचार गुणों का सभी अवस्थानों के साध-साध्वीवर्ग के लिए अखण्ड और अस्फटित रूप से धारण-पालन करना अनिवार्य है। इन प्राचार-नियमों का पालन देशविराधना और सर्वविराधना से रहित करना चाहिए।" निर्ग्रन्थता से भ्रष्टता का कारण--सूत्रगाथा 270 में किसी भी प्राचारस्थान की विराधना निर्ग्रन्थता से परिभ्रष्टता का कारण बताया गया है। इसका कारण है कि जब कोई व्यक्ति किसी मौलिक आचार-नियम का भंग या उल्लंघन करता है, तब वह अज्ञान और प्रमाद से युक्त हो जाता 8. (क) सिक्खा दुविधा, तं०--गहणसिक्खा पासेवणासिक्खा य / गहण सिक्खा नाम सुत्तत्थाणं गहणं, आसेवणा सिक्खा नाम जे तत्थ करणिज्जा जोगा, तेसि काएण संफासणं, अकरणिज्जाण य वज्जणया / (ख) दशवै. (मा. प्रात्मा.) पृ. 316-317 9. (क) दशव. वही, पृ. 315-316 (ख) दशवै. (संतबालजी) पृ. 78 10. (क) सह खुड्डगेहिं सखुड्डगा, वियत्ता (व्यक्ताः) नाम महल्ला, तेसिं, बालबुड्ढाणं तिवृत्त भवइ / -जि. चू., पृ. 216 (ख) अखण्डा देशविराधनापरित्यागेन, अस्फटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन / -हा. व., पत्र 195-196 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org