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________________ 234] [दशवकालिकसूत्र [268] जो (निर्ग्रन्थाचार) लोक (प्राणिजगत्) में अत्यन्त दुश्चर (अतीव कठिन) है, इस प्रकार के श्रेष्ठ प्राचार का कथन जैनशासन के अतिरिक्त कहीं नहीं किया गया है। विपुल (सर्वोच्च) स्थान के भागी साधुओं का ऐसा प्राचार (अन्य मत में) न तो अतीत में था, और न ही भविष्य में होगा // 5 // [266] बालक हो या वृद्ध, अस्वस्थ हो या स्वस्थ, (सभी मुमुक्षु साधकों) को जिन गुणों (प्राचार-नियमों) का पालन अखण्ड और अस्फुटित रूप से करना चाहिए, वे गुण जिस प्रकार (भगवद्भाषित) हैं, उसी प्रकार (यथातथ्य रूप से) मुझ से सुनो // 6 // [270] (उक्त प्राचार के) अठारह स्थान हैं। जो अज्ञ साधु इन अठारह स्थानों में से किसी एक का भी विराधन करता है, वह निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट हो जाता है / / 7 / / [(वे अठारह स्थान ये हैं-- छह व्रत (पाँच महाव्रत और छठा रात्रिभोजनविरमणन्नत), छह काय (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस, इन षड् जीवनिकायों संबंधी संयम करना), अकल्प्य (अग्राह्य भक्त-पान प्रादि पदार्थों का परित्याग करना); गृहस्थ के बर्तन (भाजन) में आहार-पानी ग्रहण-सेवन का त्याग करना, पर्यंक (लचीले पलंग आदि पर न सोना, न बैठना); निषद्या (गृहस्थ के घर या आसन आदि पर न बैठना); स्नान तथा शरीर की शोभा (विभूषा का त्याग करना / )] विवेचन--प्रवक्ता के योग्य एवं श्रेष्ठ गुण-धर्मोपदेशक, शास्त्र-सम्मत समाधानदाता तथा प्रवक्ता यदि योग्य गुणों से सम्पन्न नहीं होगा तो उसके उपदेश, व्याख्यान, समाधान, प्रेरणा या कथन का श्रोता पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ेगा, न उसको सन्तोषजनक समाधान होगा। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा है-- पायगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए प्रणासवे / जे धम्म सुद्धमक्खाति, पडिपुण्णमणेलिस / / अर्थात्- 'जो सदा तीन गुप्तिों से आत्मा को सुरक्षित (गुप्त) रखता हो, दान्त हो, कर्मबन्धन के स्रोत को जिसने छिन्न कर दिया हो, जो पाश्रवों से रहित (संवरधर्म में रत) हो, वही परिपूर्ण, अनुपम एवं शुद्ध (जिनोक्त) धर्म का प्रतिपादन कर सकता है / / इन्हीं गुणों से मिलते-जुलते कुछ प्रमुख गुणों का निरूपण प्रस्तुत गाथा में किया गया है वह (1) निभृत, (2) दान्त, (3) सर्वजीव-सुखावह, (4) शिक्षा-समायुक्त एवं (5) विचक्षण हो / इनकी व्याख्या क्रमश: इस प्रकार है-(१)निहुमो-निभत : लीन अर्थ-(१) स्थितात्मा,(२) निश्चलमना, (3) असम्भ्रान्त या निर्भय / (2) दंतो—दान्त–जितेन्द्रिय, (3) सर्वभूतसुखावह--(१) सर्वजीवों को सुख पहुंचाने वाला, (2) सब जीवों का हितैषी, (3) सब प्राणियों का सुखवाञ्छक / (4) शिक्षा 6. सूत्रकृतांग श्र त. 1 7. (क) दशवेयालियं (मुनि नथ.), पृ. 295 (ख) दशव. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 312-313 (ग) दशवै. (संतबालजी), पृ. 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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