________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [225 विवेचन–मद्यपानजनित दोष और दुष्परिणाम-प्रस्तुत 14 सूत्रगाथाओं (246 से 262 तक) में साधु मद्यपान का दुर्गुण लग जाने पर किन-किन महादोषों से वह घिर जाता है और उनके क्या-क्या दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं ? इसका विशद निरूपण है। तथा 4 गाथाओं में इस महादुर्गुण तथा महादोषों से बच कर चलने वाले शुद्धाचारी साधु के प्रशंसनीय जीवन का निरूपण भी है। यह पान-परिभोगैषणा से सम्बन्धित दोष है। मद्यपानजनित महादोष-मद्यपायी साधु के जीवन में निम्नोक्त दोष घर कर जाते हैं-- (1) अकेला और एकान्त में छिप कर पीने से मायाचार, (2) चोरी, (भगवदाज्ञालोपनरूप चौर्य), (3) पानासक्ति में वृद्धि, (4) मायामृषा-वृद्धि, (5) अपकीति, (6) अतृप्ति, (7) असाधुता का दौर, (8) चोर की तरह मन में सदैव उद्विग्नता, (6) मरणान्तकाल तक भी संवर को आराधना का अभाव, (10) प्राचार्य एवं श्रमणों की अनाराधना-अप्रसन्नता, (11) गृहस्थों के द्वारा निन्दा, घृणा। (12) दुर्गुणप्रेक्षण, (13) ज्ञानादिगुणोंका ह्रास, एवं (14) अन्त में तप, वचन, रूप, प्राचार और भाव का स्तैन्य (चौर्य)।३१ सुरा, मेरक और मद्यकरस : स्वरूप और प्रकार-सुरा और मेरक ये दोनों मदिरा के ही प्रकार हैं / भावमिश्र के अनुसार उबाले हुए शालि, षष्टिक (साठी) आदि चावलों को संधित करके तैयार की हुई मदिरा 'सुरा' कही जाती है। किन्तु अन्य आचार्यों ने मदिरा की तीन किस्में बताई हैं-गौड़ी, माध्वी और पैष्टी। गुड़ से निष्पन्न गौड़ी, महुअा से निष्पन्न माध्वी और धान्य आदि के पिष्ट (आटे) से बनाई हुई पैष्टी कहलाती है। एक प्राचार्य ने मद्य के 12 प्रकार बताए हैं—(१) महुअा का, (2) पानस (अनन्नास) का, (3) द्राक्षा का, (4) खजूर का, (5) ताड़ का (ताड़ी), (6) गन्ने का, (7) मैरेय-धावड़ी के फूल का, (8) मधुमक्खियों का (माक्षिक), (8) कविट्ठ-कैथ का (टांक), (10) मधु-अन्य प्रकार के शहद का, (11) नारियल का और (12) आटे का (पैष्ट) 13 मैरेय : मेरक : विभिन्न परिभाषाएँ-(१) सुरा को पुनः सन्धान करने से निष्पन्न होने वाली सुरा, (2) धाई के फल, गुड़ तथा धान्याम्ल (कांजी) के सन्धान से तैयार की जाने वाली, (3) 31. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 36-37 32. (क) 'शालि-षष्ठिक-पिष्टादिकृतं मद्य सुरा स्मृता।' -चरक पूर्व भा. (सूत्रस्थान) अ. 25, पृ. 203 (ख) मदिरा त्रिविधा—माध्वी (मधुकेन निष्पादिता), गौडी (-गुडनिष्पादिता), पैष्टी (ब्रीह्यादिपिष्टनिर्व तेति) / द्वादश विधमद्यानि, यथा माध्वीकं पानसं द्राक्षं, खाजूरं नारिकेलजम् / मेरेयं माक्षिकं टांक, माधूकं तालमैक्षवम् / मुख्यमन्नविकारोत्थं, मद्यानि द्वादशैव च // -दशवे. (प्राचारमणिमंजषा), टीका भा.१. पू. 531-532 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org