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________________ 224] दिशवकालिकसूत्र [250] 'मुझे कोई नहीं जानता-देखता', यों विचार कर एकान्त में अकेला (मद्य) पीता है, वह (भगवान् की आज्ञा का लोपक होने से) चोर है। उसके दोषों को (तुम स्वयं) देखो, और मायाचार (कपटवृत्ति) को मुझ से सुनो / / 37 / / [251] उस (मद्यपायी) भिक्षु की (मदिरापानसम्बन्धी) आसक्ति, माया-मृषा, अपयश, अनिर्वाण (अतृप्ति) और सतत असाधुता बढ़ जाती है / / 3 / / [252] जैसे चोर सदा उद्विग्न (घबराया हुमा) रहता है, वैसे ही वह दुर्मति साधु अपने दुष्कर्मों से सदा उद्विग्न रहता है / ऐसा मद्यपायी मुनि मरणान्त समय में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता / / 3 / / [253] न तो वह प्राचार्य की प्राराधना कर पाता है और न श्रमणों की। गृहस्थ भी उसे वैसा (मद्य पीने वाला दुश्चरित्र) जानते हैं, इसलिए उसकी निन्दा (गर्हा) करते हैं // 40 // [254] इस प्रकार अगुणों (मद्यपानजनित अनेक दुर्गुणों) को ही (अहनिश) प्रेक्षण (ध्यान या धारण) करने वाला और गुणों (ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि गुणों) का त्याग करने वाला उस प्रकार का साधु मरणान्तकाल में भी संवर (चारित्र) की आराधना नहीं कर पाता // 41 // [255-256] (इसके विपरीत) जो मेधावी और तपस्वी साधु तपश्चरण करता है, प्रणीत (स्निग्ध) रस से युक्त पदार्थों का त्याग करता है, जो मद्य (मादक द्रव्यों) और प्रमाद से विरत है, अहंकारातीत है अथवा अत्यन्त उत्कृष्ट साधु है; उसके अनेक साधुनों द्वारा पूजित (प्रशंसित या वन्दित) विपुल एवं अर्थसंयुक्त कल्याण को स्वयं देखो और मैं उसके (गुणों का) कीर्तन (गुणानुवाद) करूगा, उसे मुझ से सुनो / / 42.43 // [257] इस प्रकार (ज्ञानादि) गुणों की प्रेक्षा करने वाला और प्रगुणों (प्रमादादि दोषों) का त्यागी शुद्धाचारी साघु मरणान्त काल में भी संवर की आराधना करता है // 44 // [258] (वह संवराराधक साधु) आचार्य की आराधना करता है और श्रमणों की भी। गृहस्थ भी उसे उस प्रकार का शुद्धाचारी जानते हैं, इसलिए उसकी पूजा (सन्मान-सत्कार-प्रशंसा) करते हैं // 4 // [256] (किन्तु) जो (साधु होकर भी) तप का चोर है, वचन का चोर है, रूप का चोर है, प्राचार तथा भाव का चोर है, वह किल्विषिक देवत्व के योग्य कर्म करता है // 46 // [260] देवत्व (देवभव) प्राप्त करके भी किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ वह वहाँ यह नहीं जानता कि यह मेरे किस कर्म (कृत्य) का फल है ? ||47 / / / [261] वह (किल्विषिक देव) वहाँ से च्युत हो कर मनुष्यभव में एडमूकता (बकरी या भेड की तरह गूगापन) अथवा नरक या तिर्यञ्चयोनि को प्राप्त करेगा जहाँ उसे बोधि की (प्राप्ति) अत्यन्त दुर्लभ है / / 4 / / [262] इस (पूर्वोक्त) दोष (-समूह) को जान-देख कर ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने कहा कि मेधावी मुनि अणुमात्र (लेशमात्र) भी मायामृषा (कपटसहित झूठ) का सेवन न करे // 46 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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