________________ 226] [ दशवकालिकसूत्र पासव और सुरा को एक बर्तन में सन्धान करने से निष्पन्न मद्य (4) कैथ की जड़, बेर और खांड का एकत्र सन्धान करके तैयार की मदिरा / 33 (5) सिरका नामक मद्य है / * मद्यकरस-भांग, गांजा, अफीम, चरस आदि मदजनक या मादक रस-द्रव्य को मद्यक रस कहते हैं / जो-जो द्रव्य बुद्धि को लुप्त करते हैं, वे मदकारी-मद्यक कहलाते हैं / 34 जसं सारक्खमप्पणोः-अपने यश अथवा अपने संयम की सुरक्षा करने के लिए / यहाँ यश शब्द का सभी टीकाकारों ने 'संयम' अर्थ किया है / 35 ससक्खं : दो रूप : तीन अर्थ-(१) स्वसाक्ष्य-आत्मसाक्षी से, (2) ससाक्ष्य-सदा के लिए मद्य-परित्याग में साक्षीभूत केवली के द्वारा निषिद्ध, (3) ससाक्ष्य--गृहस्थों की साक्षी से न पीए / 36 संवर : तीन अर्थों में--(१) प्रत्याख्यान, (2) संयम, और (3) चारित्र / 37 मेधावी : बुद्धिमान् के दो प्रकार हैं—(१) ग्रन्थमेधावी = बहुश्रुत, शास्त्र-पारंगत और (2) मर्यादा-मेधावी-शास्त्रोक्त मर्यादाओं के अनुसार चलने वाला / 8 मद्यप्रमाद : स्पष्टीकरण-मद्य और प्रमाद ये दोनों भिन्नार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु भिन्नार्थक नहीं हैं / मद्य प्रमाद का हेतु है / इसलिए यहाँ मद्य को ही प्रमाद कहा गया है / 36 33. (क) 'मेरकं वापि प्रसन्नाख्याम् / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 188 (ख) 'मैरेयं धातकीपुष्प-गुड-धान्याम्ल-सन्धितम् / ' -चरक पू. भा. सूत्रस्थान प्र. 25, पृ. 203 (ग) "पासवश्च सुरायाश्च द्वयोरेकत्र भाजने, संधानं तद्विजानीयान्मरेयमुभयाश्रयम् / " -वही, अ. 27, पृ. 240 (घ) मालूरमूलं बदरी शर्करा च तथैव हि / एषामेकत्र सन्धानात् मैरेयी मदिरा स्मृता। वही अ. 25, पृ. 203 * मेरकं सरकानामधेयं मद्यम् / -दश. प्रा. म. मं. टीका, पृ. 532 34. 'माद्यक-मदजनक रसम्, मादकत्वेन द्वादशविधमद्यस्य तदितरस्य विजयादेश्च सर्वस्य संग्रहः / ' -दशवै. (ग्राचारमणिमंजषा टीका) भा. 1, पृ. 532 35. 'यशः शब्देन संयमोऽभिधीयते / ' --हारि. वृत्ति, पत्र 188 (क) सक्खीभूतेण अप्पणा-सचेतणेण इति। -अगस्त्यचणि, पृ. 134 (ख) ससक्खं नाम सागारिएहिं पडुप्पाइयमाणं। -जि. च., पृ. 202 (ग) ससाक्षिक---सदापरित्यागसाक्षि-केवलि-प्रतिषिद्ध न पिबेत् भिक्षुः / अनेन प्रात्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः / --हारि. वृत्ति, पत्र 188 37. (क) 'संवर पच्चक्खाणं / '--. चू., पृ. 134, (ख) संवरो नाम संजमो। --जि. चु., पृ. 204 (ग) संवरं चारित्रम् / —हारि. वृत्ति, पृ. 188 38. मेधावी दुविहो तं०---गंथमेधावी, मेरामेधावी य। तत्थ जो महंतं गंथ अहिज्जति, सो गंथमेधावी, मेरामेधावी णाम मेरा मज्जाया भण्णति, तीए मेराए धावति ति मेरामेधावी। -जिन. चू., पृ. 203 39. छविहे पमाए प.तं.---मज्जपमाए""मद्य-सुरादि, तदेव प्रमादकारणत्वात् प्रमादो मद्यप्रमादः / -स्थानांग 6-44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org