________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [219 [242] (निर्ग्रन्थ श्रमण) स्त्री या पुरुष, बालक या वृद्ध वन्दना कर रहा हो, तो उससे किसी प्रकार की याचना न करे तथा आहार न दे तो उसे कठोर वचन भी न कहे / / 29 // [243] जो वन्दना न करे, उस पर कोप न करे, (और राजा, नेता आदि कोई महान् व्यक्ति) वन्दना करे तो (मन में) उत्कर्ष (अहंकार) न लाए-(गर्व न करे) इस प्रकार भगवदाज्ञा का अन्वेषण करने वाले मुनि का श्रामण्य (साधुत्व) अखण्ड रहता है। विवेचन-भिक्षाचर्या में श्रमणत्व का ध्यान रखे प्रस्तुत सूत्रगाथाओं (239 से 243 तक) में भिक्षाचर्या करते समय साधू को क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, अदैन्य, मन-वचन-काय-संयम, तप, त्याग आदि श्रमणधर्मों (श्रमणत्व को अखण्ड रखने वाले गुणों) को सुरक्षित रखने का निर्देश किया गया है। (1) अदीणो वित्तिमेसेज्जा-गृहस्थ के सामने अपनी दीनता-हीनता प्रदर्शित करके या गिड़गिड़ा कर या लाचारी बताकर भिक्षाचर्या न करे, न पाहार की याचना करे, क्योंकि दीनता प्रकट करने से प्रात्मा का अधःपतन और जिनशासन को लघुता होती है। मन में दीनता पा जाने से शुद्ध पाहार की गवेषणा नहीं हो सकती / किसी प्रकार से आहार से पात्र भरने की वृत्ति आजाती है / दीनता 'त्याग' नामक श्रमणधर्म को खण्डित कर देती है। (2) न विसीएज्ज--कदाचित् शुद्ध गवेषणा करने पर भी प्राहार-पानी न मिले तो मन में किसी प्रकार का विषाद न करे / क्योंकि विषाद करने से प्रार्तध्यान होता है, क्षान्तिगुण का ह्रास हो जाता है। (3) अमुच्छिओ-साधु सरस स्वादिष्ट आहार में मूच्छित---पासक्त-न हो, क्योंकि इससे निर्लोभता (मुक्ति) का गुण लुप्त हो जाता है। रसलोलुप बनने पर साधु सरल आहार मिलने वाले घरों में जाएगा, ऐसी स्थिति में एषणाशुद्धि नहीं रह सकेगी। (4) मायण्णे-साधु को अपने आहार के परिमाण का जानकार होना आवश्यक है, क्योंकि अधिक आहार लाने पर उसका परिष्ठापन करने से असंयम होगा। संयम नामक श्रमणधर्म का ह्रास होगा। (5) एषणारए-भिक्षाचर्या का अभिप्राय एषणाशुद्ध आहार लाना है / अतः भिक्षाचरी के समय पंचेन्द्रियविषयों या अन्य बातों अथवा गप्पों से२७ ध्यान हटाकर केवल एषणा में ही ध्यान रखना है, अन्यथा वह अहिंसादि धर्म से विचलित हो जाएगा। _अदितस्स न कुप्पेज्जा-गृहस्थ के यहाँ जाने पर साधु अनेक प्रकार की शयन, आसन, वस्त्र, विविध सरस आहार आदि प्रत्यक्ष देखता है, परन्तु यदि गृहस्थ की भावना नहीं है तो वह नहीं देता / उसकी इच्छा है, वह दे या न दे / किन्तु न देने पर साधु उसे न झिड़के, न डांटे-फटकारे, या न ही गालीगलौज करे, न किसी प्रकार का शाप दे / क्योंकि ऐसा करने से उसका क्षमा नामक श्रमण 27. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 277 (ख) दशवै. (प्राचारमणि मं. टीका) भा. 1, पृ. 520 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org