________________ 220] [दशवकालिकसून धर्म लुप्त हो जाएगा / अंतः साधु न देने पर कुछ भी बोले बिना या मन में द्वोष, घृणा या रोष का भाव लाए बिना चुपचाप वहाँ से निकल जाए।२८ बंदमाणं न जाइज्जा-चणिद्वय और हारि. वृत्ति में इसकी व्याख्या की गई है—वन्दना करने वाले स्त्री, पुरुष, बालक अथवा वृद्ध पुरुष से साधु किसी प्रकार की याचना न करे, क्योंकि इस प्रकार याचना करने से वन्दना करने वाले लोगों के हृदय में साधु के प्रति श्रद्धा-भक्ति समाप्त हो जाती है। साधु मन में यह न सोचे कि इसने मुझे वन्दन किया है, इसलिए यह अवश्य ही भद्र है, इससे याचना करनी चाहिए, किन्तु सभी सम्पन्न नहीं होते, और जो सम्पन्न होते हैं, वे सभी भावुक नहीं होते। किसी की परिस्थिति या भावना अनुकूल नहीं होती, वह साधु के वचनों का अनादर कर सकता है, अथवा साधु के स्वाभिमान को चोट पहुंचा सकता है / यदि याचना करने पर भी वन्दना करने वाला कोई गृहस्थ निर्दोष आहार-पानी न दे तो उसे झिड़कना या कठोर वचन नहीं कहना चाहिए / दोनों चणियो तथा टीका में 'वंदमाणो न जाएज्जा' पाठान्तर मिलता है। तात्पर्य यह है कि साधु गृहस्थ को प्रशंसा करता हा याचना न करे / यह पाठ भी संगत प्रतीत होता है, क्योंकि 'पूर्व-पश्चात-संस्तव नामक एषणादोष इसी अर्थ को द्योतित करता है। आचारचूला और निशीथसूत्र में इसी पाठ का समर्थन मिलता है / 26 धन्दना न करने वाले पर कोप और वन्दन करने पर गर्व न करे--ये दोनों दोष भिक्षाजीवी साधु में नहीं होने चाहिए / कोप से क्षमाधर्म का और गर्व से मार्दव धर्म का नाश होता है / साधु को यही चिन्तन करना चाहिए कि किसी के वन्दना करने या न करने से साधु को कोई लाभ नहीं है, उसके कर्म नहीं कट जाएँगे, न मोक्ष प्राप्त होगा। वन्दना करने से कुछ लाभ है तो गृहस्थ को है। प्रतः साधु को वन्दना करने या न करने वाले दोनों पर समभाव रखना चाहिए / 30 सामण्णमणुचिट्ठइ-इन भगवत्प्ररूपित सूत्रों के अनुसार चलने से साधु-साध्वी श्रामण्य (श्रमणधर्म) में स्थिर रहते हैं। अथवा इन जिनाज्ञानों का अनुसरण करने वाले साधु का साधुत्व अखण्ड रहता है। निष्कर्ष यह है कि साधु प्रात्मगुणों से बाह्य इन विभावों या परभावों में न उलझ कर स्वभाव में स्थिर रहे / ' 28. (क) दश. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 279 (ख) पण्डिए इति पदेन सदसदविवेकशालित्वं, तेन च मनोविजयित्वमावेदितम् / -दश. (प्रा. म. मं. टीका) भा. 1, पृ. 522 29. (क) दशवे. (प्राचार्य श्री अात्मा.), पृ. 280 (ख) दशवं. (ग्रा. म. मं. टोका) भा. 1, पृ. 523-524 (ग) पाठविशेषो वा--'वंदमाणो न जाएज्जा / ' -प्र. चू., पृ. 132 (घ) जिनदासचूणि, पृ. 200 (ङ) 'नो गाहावई बंदिय-बंदिय जाएज्जा, नो व णं फरसं वएज्जा / ' --प्राचारचुला, 1162 // निशीथ 2 / 38 30. (क) दशवै. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 281 (ख) दशव. (पानारमणिमंजूषा टीका), भा. 1, पृ. 525 1. (क) अन्वेषमाणस्य भगवदाज्ञामनुपालयत: श्रामण्यमनुतिष्ठति अखण्डमिति / —हारि. वृत्ति, पत्र 186 (ख) दशवै. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 281 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org