________________ 218] दिशवकालिकसूत्र नीच और 'अवच' तथा 'ऊसढ' (उच्छ्रित) और उच्च दोनों एकार्थक हैं / 26 दीनता, स्तुति एवं कोप आदि का निषेध 239. प्रदीणे वित्तिमेसेज्जा, न विसीएज्ज पंडिए। अमुच्छिओ भोयणम्मि मायन्ने एसणारए // 26 / / 240. बहुं परघरे अस्थि, विविहं खाइम-साइमं / न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज्ज परो न वा॥ 27 / / 241. सयणासण-बत्थं वा भत्त-पाणं व संजए / अदेतस्स न कुप्पेज्जा, पच्चक्खे वि य दीसत्रो / / 28 // 242. इत्थियं पुरिसं वा वि डहरं बा महल्लगं। वंदमाणं न जाइज्जा नो य णं फरसं वए / / 29 / / 243. जे न वंदे, न से कुप्पे, वंदिओ न समुक्कसे / एवमन्नेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्ठई // 30 // [239] विवेकशाली (पण्डित) साधु दीनता से सर्वथा रहित होकर वृत्ति (भिक्षा) की एषणा करे / (भिक्षा न मिले तो) विषाद न करे। (सरस) भोजन (मिलने पर उस) में अमच्छित (अनासक्त) रहे / मात्रा को जानने वाला मुनि (ग्राहार-पानी की) एषणा (पूर्वोक्त एषणात्रय) में रत रहे / / 26 / / [240] गृहस्थ (पर) के घर में अनेक प्रकार का प्रचुर खाद्य तथा स्वाद्य आहार होता है; (किन्तु न देने पर) पण्डित मुनि (उस पर) कोप न करे; परन्तु ऐसा विचार करे कि यह गृहस्थ (पर) है, (यह) दे या न दे इसकी इच्छा / / 27 / / / [241] संयमी साधु प्रत्यक्ष (सामने) दीखते हुए भी शयन, प्रासन, वस्त्र, भक्त और पान, न देने वाले पर क्रोध न करे // 28 / / समुयाणीयंति-समाहरिज्जति तदत्थं चाउलसाकतो रसादीणि तदुपसाधणाणीति अण्णमेव 'समुदाणं घरे'-गच्छेदिति / अह्वा पुव्वभणितमुग्गमुप्पायणेसणासुद्धमण्णं समुदाणीयं चरे / --अ. चू., पृ. 131 (ख) समुदाया णिज्जइ त्ति-थोवं थोवं पडिवज्जइ त्ति वुत्तं भवइ / -जि. चू. 198 (ग) जिनदास. चूणि, पृ. 198-199 (घ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी) प. 284 (3) ..."णो णीयाणि प्रतिक्कमेज्जा, कि कारणं ? दीहा भिक्खायरिया भवति, सूतत्थपलिमंथो य जडजीवस्स य अण्णे न रोयंति / जे ते अतिक्कमिज्जति, ते अप्पत्तियं करेंति, जहा परिभवति एस अम्हेत्ति, पव्वइयो वि जातिवायं ण मुयति / जातिवाग्लो य उवहितो भवति / ' –जि. चूणि, पृ. 199 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org