SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्ययन :पिण्डषणा] [217 बीयमणि, फलमणि : अर्थ और स्पष्टीकरण-बीजमन्थ ---जौ, उड़द, मूग, गेहूँ आदि के चूर्ण (-चरे) को 'बीजमंथु' कहते हैं / बीजों के चरे या कूट में अखण्ड बीज (दाना) रहना सम्भव है, इसी कारण इसे उत्पक्व-प्रशस्त्रपरिणत, अतएव सचित्त माना है। फलमन्थ : दो अर्थ-(१) बेर अादि फलों का चूर्ण (चुरा या कूट), (2) बेर का चूर्ण या कूट / बिहेलग-बिभीतक बहेड़ा का फल, जो त्रिफला में मिलता है, दवा के काम में आता है। यह प्रखण्ड फल सचित्त है, इसका कूटा हुआ चूर्ण अचित्त है। पियालं—प्रियाल : तीन अर्थ-(१) चिरौंजी का फल, (2) रायण का फल, (3) द्राक्षा। सामुदानिक भिक्षा का विधान 238. समुदाणं चरे भिक्खू, कुलं उच्चावयं सया। नीयं कुलमइक्कम्म, ऊसढं नाभिधारए // 25 // [238] भिक्षु समुदान (सामूहिक) भिक्षाचर्या करे / (वह) उच्च और नीच सभी कुलों में (भिक्षा के लिए) जाए, (किन्तु) नीचकुल (घर) को छोड़ (लांघ) कर उच्चकुल (घर) में न जाए / / 25 / / विवेचन-भिक्षाचर्या में समभाव की दृष्टि रखे-प्रस्तुत सूत्रगाथा में साधु-साध्वी को भिक्षाचर्या में समभाव की दृष्टि रखने हेतु समुदान भिक्षा का निर्देश किया गया है। एक ही या दो-तीन घरों से ही भिक्षा ली जाए तो उसमें एषणाशुद्धि रहनी कठिन है / साधु की स्वादलोलुपता भी बढ़ सकती है। इसलिए अनेक घरों से थोड़ा थोड़ा लेने से और सधन-निर्धन-मध्यम सभी घरों से आहारपानी लेने से एषणाशुद्धि और समतावृद्धि होती है / उच्च-नीच कुल का अर्थ-जो घर जाति से उच्च, धन से समृद्ध हों, और मकान भी विशाल हो, ऊँचा हो, तथा जहाँ मनोज्ञ आहार मिले, वह कुल (घर) 'उच्च' कहलाता है / जो घर जाति से नीच हो, धन से समृद्ध न हो और मकान भी विशाल एवं ऊँचा न हो, जहाँ मनोज्ञ आहार न मिलता हो, वह कुल (घर) नीचकुल है। साधु इस प्रकार नीचकुल को छोड़ कर या लांघ कर ऊँचे कुलों में भिक्षार्थ न जाए / यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा कि जुगुप्सित कुल में भिक्षा के लिए जाना निषिद्ध है। 25. (क) बीयम)---जव-मास-मुग्गादीणि / फलमंथू-बदर-ओबरादोणं भण्णइ / —जिन. चूणि, पृ. 198 (ख) फलमन्थन्–बदरचूर्णान् / बीजमन्थन्–यवादिचूर्णान् / —हारि. वृत्ति, 198 (ग) विभेलगं-भूतरुक्खफलं, (बिभीतकफलम्)। --अ. 'चूणि, पृ. 130 (घ) पियालं पियालरुक्खफलं बा। -प्र. चूर्णि, पृ. 130 (ङ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी) पृ. 284 (च) दशवं. (याचारमणिमंजषा टीका) भा. 1, 517-518 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy