________________ 216] [वशवकालिकसूत्र पिष्ट-आटा अथवा (2) भुने हुए चावलों का पिष्ट / ये दोनों जब तक अपरिणत हों, तब तक सचित्त हैं।" वियर्ड वा तत्त-निम्वुडं : चार रूप : चार अर्थ-(१) विकटं तप्तनितम्-इन दोनों को एक पद मान कर अर्थ किया गया है, जो उष्णोदक पहले गर्म किया हुअा हो, किन्तु कालमर्यादा व्यतीत होने पर पुनः सचित्त हो गया हो / वर्तमान परम्परानुसार ग्रीष्मकाल में 5 पहर के बाद, शीतकाल में 4 पहर के बाद और वर्षाकाल में तीन पहर के बाद अचित्त उष्ण जल भी सचित्त हो जाता है, ऐसी कितने ही प्राचार्यों की मान्यता है, पर मूल आगमों के पाठों में ऐसा संकेत नहीं है / (2) विकृत-अन्तरिक्ष और जलाशय का जल, जो दूसरी वस्तु के मिश्रण से विकृत होने से अचित्त-निर्जीव हो जाता है, जैसा कि आचारांग चूला में विकृत जल के रूप में द्राक्षा आदि का 21 प्रकार का पानक (धोवन) ग्राह्य कहा है। तप्ताऽनिर्वत–जो जल तप्त (गर्म किया हुआ) तो हो, किन्तु थोड़ा गर्म किया हुआ होने से पूर्णतया अनिर्वृत-शस्त्रपरिणत न हुआ हो, वह मिश्र जल है / 22 पूइ-पिन्नाग : दो रूप : पांच अर्थ-(१) पूति-पोई का साग और पिण्याक--तिल, अलसी, सरसों आदि की खली। (2) पूतिपिण्याक-सड़ी हुई दुर्गन्धित खली। (3) सरसों की पिट्ठी / (4) सरसों का पिण्ड (भोज्य) / (5) सरसों की खली पिण्याक / 23 कविट्ठ प्रादि के अर्थ -कविट्ठ-कपित्थ या कैथ का फल, जिसका वृक्ष कंटीला होता है, जिसके फल बेल के आकार के कसैले या खट्र होते हैं। माउलिग:मालिग-बिजौरा / मुलक : मूलक-पत्ते के सहित मूली / मूलगत्तियं-मूलकतिका कच्ची मूली का गोल टुकड़ा / वृत्ति के अनुसार मूलवत्तिका—कच्ची मूली / 24 21. (क) चाउलं पिट्ठ-लोट्ठो, तं प्रभिणवमणिधणं सच्चित्तं भवति। --प्र. चू. पृ. 130 (ख) धाउलं पिठं भठ्ठ भण्ण इ, तमपरिणतधम्म सचित्तं भवति। वात। -जि. -जि. चू., पृ. 198 22. (क) वियर्ड उण्होदगं। ---अ. चू., पृ. 130 (ख) तप्तनिवृतं-क्वथितं तत् शीतीभूतम् / —हा. टी., पत्र 185 (ग) वियड ति पानकाहारः / (विकृतम् जलं) -ठाणांग-३१३४९ वृत्ति (घ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 282 (ङ) तप्ताऽनिर्वृतं वा-अप्रवृत्तत्रिदण्डम् / —हा. टीका, पृ. 185 23. (क) पूति-पिण्याकं-सर्षपखलम् / --हारि. वृत्ति, पत्र 185 (ख) पिण्याक:-खलः। -सूत्रकृ. 2 / 6 / 26 प. 396 वृ. (ग) पूतियं नाम सिद्धत्थपिण्डगो, तत्थ अभिन्ना वा सिद्धत्थगा भोज्जा, दरभिन्ना वा / --जिन. चूणि, पृ. 198 (घ) पूइ-पोई-पिण्याकतिल कल्कस्थूणिकाशुष्कशाकानि सर्वदोषप्रकोपणानि। -सुश्रु त सू. 46 / 321 24. (क) कपित्थं कपित्थफलम् / मातुलिगं च बीजपूरकं / मूलवत्तिका मूलकन्द-चक्कलिम् / -हारि. वृत्ति, पत्र 185 (ख) मूलगो-सपत्तपलासो, मूलकत्तिया-मूलकंदा चित्तलिया भण्णइ / —जिनदास चूणि, पृ. 198 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org