SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [209 चारी भिक्षाकाल व्यतीत होने पर भिक्षा के लिए निकला, किन्तु बहुत भ्रमण करने पर किञ्चित् भी आहार न मिला / हताश और विक्षुब्ध देखकर एक कालचारी भिक्षु ने पूछा-'इस गाँव में भिक्षा मिली तुम्हें ?' वह तुरन्त बोला-'इस वीरान गाँव में कहाँ भिक्षा मिलती?' कालचारी साधु ने उसे जो शिक्षाप्रद बातें कहीं, वही इस गाथा में अंकित हैं। उसका तात्पर्य यह है कि तुम अपने दोष को दूसरों पर डाल रहे हो / तुमने प्रमाददोष के कारण या स्वाध्याय के लोभ से काल का विचार नहीं किया / फलस्वरूप तुमने अपने आपको अत्यन्त भ्रमण से तथा भोजन के अलाभ के कारण खिन्न किया और इस ग्राम की निन्दा करने लगे। सइकाले. : व्याख्या--(१) भिक्षा का समय हो जाने पर ही भिक्षु भिक्षा के लिए जाए, (2) एक अन्य व्याख्या के अनुसार भिक्षा का स्मृतिकाल होने पर ही भिक्षु भिक्षाचरी के लिए निकले। स्मृतिकाल ही भिक्षाकाल है। अर्थात्-जिस समय गृहस्थ लोग भिक्षा देने के लिए भिक्षाचरों को स्मरण करते हैं, उस समय को भिक्षा का स्मृतिकाल कहते हैं।' ___ कालेण य पडिक्कमे : तात्पर्य-जब साधु यह जान ले कि अब भिक्षाचर्या का समय नहीं रहा, स्वाध्याय आदि का समय आ गया है तब वह तुरन्त भिक्षाटन करना बंद करके समय पर अपने स्थान पर वापस लौट आए जिससे अन्य स्वाध्यायादि आवश्यक कार्यक्रमों में विघ्न न पड़े। भिक्षा न मिलने पर-भिक्षाचर्या के समय पर भिक्षा के लिए पुरुषार्थ करने पर भी यदि आहार न मिले या थोड़ा मिले, ऐसी स्थिति में साधु के मन में न तो उसका खेद होना चाहिए, न चिन्ता ही, बल्कि उसे यह सोच कर सन्तुष्ट और सहनशील होना चाहिए कि मुझे अनायास ही तपश्चर्या का लाभ मिला है / यह भी सोचना चाहिए कि मैंने तो भिक्षाचर्या के लिए जाकर अपने वीर्याचार का सम्यक्तया अाराधन कर लिया है। वृत्तिकार ने कहा है-“साधु वीर्याचार के लिए भिक्षाटन करता है, केवल पाहार के लिए ही नहीं।'' भिक्षार्थ गमनादि में यतना-निर्देश 220. तहेवुच्चावया पाणा भत्तट्ठाए समागया। तउज्जुयं x न गच्छेज्जा, जयमेव परक्कमे // 7 // 221. गोयरग्गपविट्ठो उ न निसीएज्ज कत्थई / / कहं च न पबंधेज्जा, चिट्ठित्ताण व संजए // 8 // 8. जि. चू., पृ. 195 9. 'सति' विद्यमाने काले भिक्षासमये चरेद् भिक्षुः / अन्ये तु व्याचक्षते-स्मृतिकाल एव भिक्षाकालोऽभिधीयते, स्मर्यन्ते यत्र भिक्षाकाः स स्मृतिकालः। -हारि. वृत्ति, पत्र 183 10. दशवं. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 255 11. (क) दशवै. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पु. 504 (ख) 'तदर्थं च भिक्षाटनं नाहारार्थमेवातो न शोचयेत् / --हारि, वृत्ति, प. 183 x पाठान्तर-तं उज्जुअं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy