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________________ 20.] [दशवकालिकसूत्र 218. अकाले चरसि भिक्खो ! कालं न पडिलेहसि / अप्पाणं च किलामेसि, सन्निवेसं च गरहसि // 5 // 219. सइ काले चरे भिक्खू, कुज्जा पुरिसकारियं / अलाभोत्ति न सोएज्जा, तवो ति अहियासए // 6 // [217] भिक्षु (भिक्षा) काल में (जिस गांव में जो भिक्षा का समय हो, उसी समय में) (भिक्षा के लिए उपाश्रय से) निकले और समय पर (स्वाध्याय आदि के समय) ही वापस लौट आए। अकाल को वर्ज (छोड़) कर जो कार्य जिस समय उचित हो, उसे उसी समय करे / / 4 // [218] हे मुनि ! तुम अकाल में (असमय में भिक्षा का समय न होने पर भी भिक्षा के लिए) जाते हो, काल का प्रतिलेखन (अवलोकन) नहीं करते / (ऐसी स्थिति में भिक्षा न मिलने पर) तुम अपने आपको क्लान्त (क्षुब्ध) करते हो और सन्निवेश (ग्राम) की निन्दा करते हो / / 5 / / [216] भिक्षु (भिक्षा का) समय होने पर भिक्षाटन करे और (भिक्षा प्राप्त करने का) पुरुषार्थ करे / भिक्षा प्राप्त नहीं हुई, इसका शोक (चिन्ता) न करे (किन्तु अनायास ही) तप हो गया, ऐसा विचार कर (क्षुधा परीषह को) सहन करे / / 6 / / विवेचन-काल-यतना (विवेक)-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (217 से 216 तक) में समय पर सभी चर्या करने का, असमय में चर्या करने के परिणाम का, समय पर भिक्षाटन रूप पुरुषार्थ करने पर भी अप्राप्ति का खेद न करके अनायास तपश्चर्यालाभ मानने का निर्देश किया गया है। अकाल और काल का आशय-प्रस्तुत प्रसंग में अकाल का अर्थ है-जो काल जिस चर्या के लिए उचित न हो / जैसे-प्रतिलेखनकाल स्वाध्याय के लिए अकाल है, स्वाध्याय का काल प्रतिक्रमण के लिए अकाल है, इसी तरह स्वाध्याय का काल भिक्षाचर्या के लिए अकाल है / इसीलिए यहाँ कहा गया है-प्रकालं च विवज्जेत्ता-कालमर्यादाविशेषज्ञ (कालज्ञ) साधु-साध्वी अकाल में कोई चर्या (क्रिया) न करे। इसके साथ ही दूसरा सूत्र है-काले कालं समायरे--जिस काल में जो क्रिया करणीय है, वह उसी काल में करनी चाहिए। जिस गाँव में जो भिक्षाकाल हो, उस समय में भिक्षाचर्या करना काल है। इसकी व्याख्या करते हुए जिनदास महतर कहते हैं-मुनि भिक्षाकाल में भिक्षाचरी करे, प्रतिलेखनवेला में प्रतिलेखन और स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करे / अकालचर्या से मानसिक असन्तोष-जो मुनि काल का अतिक्रमण करके भिक्षाचर्या आदि क्रियाएँ करता है, उसके विक्षुब्ध मानस का चित्रण करते हुए प्राचार्य जिनदास कहते हैं-एक अकाल 6. दसवेयालियसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 33 7. (क) येन स्वाध्यायादि न संभाव्यते, स खल्बकालस्तमपास्य। --हारि. व., प.१८३ (ख) 'अकालं च विवज्जित्ता' णाम जहा पडिलेहणवेलाए सज्झायस्स अकालो, सज्झाय-वेलाए पडिलेहणाए अकालो, एवमादि अकालं विवज्जित्ता। -जि. च..५ 194 / (ग) भिवरखावेलाए भिक्खं समायरे, पडिलेहणवेलाए पडिले हणं "एवमादि। -जि. चू. पृ. 194-5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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