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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [207 विवेचन कारणविशेष से पुनः भक्तपान-गवेषणा--प्रस्तुत दो सूत्रगाथाओं (215-216) में पर्याप्त पाहार न मिलने और क्षुधानिवारण न होने पर पुनः विधिपूर्वक भिक्षाचर्या करने का निर्देश किया गया है। सेज्जा, निसीहियाए, गोयरे पदों के विशेषार्थ-ये तीनों पारिभाषिक शब्द हैं / इनके प्रचलित अर्थों से भिन्न अर्थ यहाँ अभिप्रेत है / सेज्जा : शय्या-उपाश्रय, मठ, कोष्ठ और वसति / निसीहिया-नैषीधिको-स्वाध्याय भूमि / दिगम्बरपरम्परा में प्रचलित 'नसिया' शब्द इसी का अपभ्रंश है / प्राचीनकाल में स्वाध्यायभूमि उपाश्रय से दूर एकान्त में, कोलाहल से रहित स्थान में या वृक्षमूल में चुनी जाती थी। समावन्नो व गोयरे-गोचर अर्थात् गोचरी-भिक्षाचरी के लिए गया हुआ। अयावयट्ठा : अयावदर्थ-अपर्याप्त—जितना खाद्यपदार्थ चाहिए, उतना नहीं अर्थात्-पेटभर नहीं, क्षुधानिवारण में कम / कारणमुप्पन्ने : दो प्राशय--यहाँ 'कारण' शब्द से दो प्राशय प्रतीत होते हैं-(१) उत्तराध्ययनसूत्रोक्त आहार करने के 6 कारणों में से कोई कारण उत्पन्न हो, अथवा (2) अगस्त्यचूणि के अनुसार-दीर्घतपस्वी हो, क्षुधातुरता हो, शरीर में रोगादि वेदना हो, अथवा पाहुने साधुओं का आगमन हुआ हो, इत्यादि कारण हों। हारिभद्रीयवृत्ति में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है-पुष्ट आलम्बन रूप कारण (क्षुधावेदनादि उत्पन्न) होने पर मुनि पुन: भक्तपान-गवेषणा करे, अन्यथा मुनियों के लिए एक बार ही भोजन करने का विधान है। जइ तेणं न संथरे-जितना भोजन किया है / उतने से यदि रह न सके, निर्वाह न हो सके।" यथाकालचर्या करने का विधान 217. कालेण निक्खमे भिक्खू कालेण य पडिक्कमे / अकालं च विवज्जेत्ता, काले कालं समायरे // 4 // 2. (क) सेज्जा-उवस्सतादि मट्ठकोट्ठादि -जिन. चूणि, पृ. 194 (ख) शय्यायां वसती / नषेधिक्यां-स्वाध्यायभूमौ। -हारि. वृत्ति, पत्र 182 (ग) णिसी हिया-सज्झायथाणं, जम्मि वा रुक्खमूलादो सैव निसीहिया। -अ. चू., पृ. 126 (घ) गोयरग्गसमावण्णो बाल वुड्ढखवगादि मट्ठकोट्ठगादिषु समुद्दिट्ठो होज्जा। -जि. चू., पृ. 194 3. (क) अयावयढें-ण जावळें यावदभिप्रायं। -अ. चू., पृ. 126 (ख) न यावदर्थ-प्रपरिसमाप्तमिति / —हा. वृ., प. 182 4. (क) अगस्त्यचूणि, पृ. 126 (ख) हारि. वृत्ति, पत्र 182 5. यदि तेन भुक्तेन, न संस्तरेत-न यापयितुं समर्थः, क्षपको विषमवेलापत्तनस्थो ग्लानो वेति / -हारि. वृत्ति, पत्र 182 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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