________________ 198] | दशवकालिकसूत्र ___कोट्ठगं' आदि शब्दों के भावार्थ-कोष्ठकं--(१) प्रकोष्ठ कमरा, (2) शून्यगृह आदि / भित्तिमूल-(१) मठ प्रादि की भित्ति का मूल, (2) दीवार का कोना, (3) भित्ति का एक देश, (4) भित्ति का पार्श्ववर्ती भाग, (5) भींत के निकट, (6) दो घरों का मध्यवर्ती भाग। पडिच्छन्नम्मि संवडे--(१) जिनदासणि के अनुसार ये दोनों शब्द स्थान के विशेषण हैं, अर्थ है-ऊपर चादर, चंदोवा आदि से या तृण आदि से छाये हुए एवं संवृत-चटाई आदि से चारों ओर से ढंके हुए या बन्द स्थान में, (2) प्रतिच्छन्न-ढंके हुए, उक्त कोष्ठक आदि में, संवृत---उपयोगयुक्त होकर / हत्थगं संपमज्जित्ता : तीन अर्थ-(१) 'हस्तक' शब्द द्वितीयान्त होने से हाथ को सम्यक् प्रकार से साफ करके / (2) हस्तक अर्थात् मुखवस्त्रिका या मुंहपत्ती / (3) गोच्छक या पूंजणी-(प्रमार्जनिका) से प्रमार्जन करके / स्थान की अनुज्ञा विधि--प्रस्तुत गाथा में 'अणुन्नवेत्तु' शब्द है-उसका अर्थ होता है-अनुज्ञा (अनुमति) लेकर / ___'ट्ठिय' आदि शब्दों के विशेषार्थ-ट्ठियं : तीन अर्थ-(१) गुठली, (2) बीज, (3) हड्डी / कंटगं-कांटा / सक्करं–कंकर / 67 परिष्ठापन विधि-अगर साधु के भोजन में बीज, गुठली आदि निकलें तो उन्हें सचित्त अशस्त्रपरिणत समझ कर न खाए तथा कांटा, कंकर, काष्ठ का टुकड़ा, तिनका आदि निकले तो उसे खाने से पेट में पीड़ा हो सकती है, इसलिए उसे न खाए, किन्तु दूर से ऊपर उछाल कर न फेंके, न मुंह से उसे थूक कर गिराए, दोनों प्रकार से अयतना होती है / इसलिए शास्त्रकार ने पूर्ववत् (अत्यन्त खट्टा धोवन परिठाने की विधि के समान) इसके परिष्ठापन की विधि बताई है / इसके विधिपूर्वक परिष्ठापन के पश्चात् साधु या साध्वी अपने स्थान में प्राकर मार्ग में हुई भूलों को विशुद्धि के लिए ऐपिथिक प्रतिक्रमण करे।८ 85. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 249 (ख) दशवं. (आ. आत्मा.), पृ. 224 (ग) 'भित्तिमूलं कुडय कदेशादि / ' --हा. व., पृ. 178 (घ) 'दोण्हं घराणं अंतरं भित्तिमूलं / -अ. चु., 120 (3) प्रतिच्छन्ने उपरिप्रावरणान्विते, अन्यथा सम्पातिमसत्त्वसम्पातसम्भवात् / संवते पावत: कटकूटयादिना संकटद्वारे, अटव्यां कुडंगादिषु वा। -उत्त. वृत्ति, पत्र 60-61 (च) दशव. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 478 (छ) प्रतिच्छन्ने, तत्र कोष्ठकादी, संवत उपयुक्तः सन् / ' -हा. वृ., पत्र 178 (ज) 'हस्तकं सम्प्रमाणं-हाथने साफ करीने / ' -दशवै. (संतबालजी), पृ. 57 (अ) 'हत्थगं मुहपोत्तिया भण्णइ / ' -जि. चू., पृ. 187 (ट) पूजणी से हस्तपादादि शरीर के अवयवों का प्रमार्जन करके। -मा. आत्मा. दशव., पृ. 123 86. जिनदासचूर्णि, पृ. 187 87. (क) हारि. वृत्ति, पत्र 178 (ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 250 (ग) दशवं. प्रा. म. म., भा. 1, पृ. 480 88. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 248-249 (ख) दशवं. (संतबालजी), पृ. 58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org