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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा 197 196. अणुनवेत्तु+ मेहावी पडिच्छन्नम्मि संबुर्डे / हत्थगं संपमज्जित्ता तत्थ भुजेज्ज संजए // 114 // 197. तत्थ से मुंजमाणस्स अट्ठियं कंटो सिया। तण-कट्ठ-सक्करं वा वि, अन्नं वा वि तहाविहं // 11 // 198. तं उक्खिवित्तु न णिविखवे, आसएण न छड्डए / हत्थेण तं गहेऊण एगंतमवक्कम्मे // 116 / / 199. एगंतमवक्कमिता अचित्तं पडिलेहिया। जयं परिवेज्जा, परिठ्ठप्प पडिक्कम्मे // 117 / / [195-196] गोचरान के लिये गया हुआ भिक्षु कदाचित् (ग्रहण किये हुए आहार का) परिभोग (सेवन) करना चाहे तो वह मेधावी मुनि प्रासुक कोष्ठक या भित्तिमूल (भीत के निकटवर्ती स्थान) का अवलोकन (प्रतिलेखन) कर, (उसके स्वामी या अधिकारी की) अनुज्ञा (अनुमति) लेकर किसी आच्छादित (अथवा छाये हुए) एवं चारों ओर से संवृत स्थल में अपने हाथ को भलीभांति साफ करके वहाँ भोजन करे / / 113-114 / / [197-198] उस (पूर्वोक्त विशुद्ध) स्थान में भोजन करते हुए (मुनि के आहार में) गुठली (या बीज), कांटा, तिनका, लकड़ी का टुकड़ा, कंकड़ या अन्य कोई वैसी (न खाने योग्य) वस्तु निकले तो उसे निकाल कर न फेंके, न ही मुंह से थूक कर गिराए; किन्तु (उसे) हाथ में लेकर एकान्त में चला जाए // 115-116 / / [196] और एकान्त में जाकर अचित्त (निर्जीव) भूमि देख (प्रतिलेखन) कर यतनापूर्वक उसे परिष्ठापित कर दे / परिष्ठापन करने के बाद (अपने स्थान में आकर) प्रतिक्रमण करे // 117 / / विवेचन सामान्य विधि और प्रापवादिक विधि-सामान्यतया साधु या साध्वी को भिक्षाचर्या करने के पश्चात् उपाश्रय या अपने स्थान में आकर ही आहार करना चाहिए; किन्तु यदि कोई मुनि दूसरे गाँव में या महानगर के ही दूरवर्ती उपनगर या मोहल्ले में भिक्षा लेने गया हो, वहाँ अधिक विलम्ब होने के कारण बालक, वृद्ध या रुग्ण अथवा तपस्वी आदि किसी को किसी कारणवश अत्यन्त भूख या प्यास लगी हो तो वह उपाश्रय में आने से पूर्व ही पाहार कर सकता है / यह भिक्षाप्राप्त आहार के परिभोग की प्रापवादिक विधि है। किन्तु इस प्रकार से प्रापवादिक रूप में आहार करने वाले साधु के लिए यहाँ विधि बताई गई है-वह पहले तो उस गाँव में कोई साधु उपाश्रय में हो तो वहाँ जाकर प्राहार करे / ऐसा न हो तो कोई एकान्त कोठा (कमरा) अथवा दीवार के पास या कोने में कोई स्थान चुन ले, उसे अच्छी तरह देखभाल ले। अपने रजोहरण से साफ कर ले। आहार के लिए उपयुक्त स्थान वही माना गया है, जो ऊपर से छाया गया हो और चारों ओर से आवृत हो किन्तु प्रकाश वाला हो / 84 पाठान्तर--+ अणुन्नवित्त / 84. (क) जिनदासचूर्णि, पृ. 187 (ख) दशव. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 222 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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