________________ आचारांग के द्वितीय श्र तस्कन्ध की पहली चला, 14 अध्ययन से क्रमशः 5 वें और 7 वें अध्ययन की तुलना की जा सकती है। दशवकालिक के 2, 9 व 10 वें अध्ययन के विषय की उत्तराध्ययन के 1 और 15 वें अध्ययन से तुलना कर सकते हैं।" दिगम्बर परम्परा में दशवकालिक का उल्लेख धवला, जयधवला, तत्त्वार्थराजवातिक, तत्त्वार्थश्र तसागरीया वत्ति प्रभति अनेक स्थलों में हा है और 'पारातीय राचार्यनिर्य' केवल इतना संकेत प्राप्त होता है। सर्वार्थ सिद्धि में लिखा है-जब कालदोष से आयु, मति और बल न्यून हुए, तब शिष्यों पर अत्यधिक अनुग्रह करके भारतीय प्राचार्यों ने दशवकालिक प्रभूति प्रागमों की रचना की। एक घड़ा क्षीरसमुद्र के जल से भरा हुआ है, उस घड़े में अपना स्वयं का कुछ भी नहीं है। उसमें जो कुछ भी है वह क्षीरसमुद्र का ही है। यही कारण है कि उस घड़े के जल में भी वही मधुरता होती है जो क्षीरसमुद्र के जल में होती है। इसी प्रकार जो पारातीय आचार्य किसी विशिष्ट कारण से पूर्व-साहित्य में से या अंग-साहित्य में से अंग-बाह्य श्रुत की रचना करते हैं, उसमें उन प्राचार्यों का अपना कुछ भी नहीं होता। वह तो अंगों से ही गहीत होने के कारण प्रामाणिक माना जाता है। प्राचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में, नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मटसार४८ में दशवैकालिक को अंग-बाह्य श्रत लिखा है। बीरसेनाचार्य ने जयधवला४६ में दशवकालिक को सातवां अंग-बाह्य श्रत लिखा है। यापनीय संघ में दशवकालिक सूत्र का अध्ययन अच्छी तरह से होता था। यापनीय संघ के सुप्रसिद्ध प्राचार्य अपराजितसूरि ने भगवती पाराधना की विजयोदया वृत्ति में दशवकालिक की गाथाएं प्रमाण रूप में उद्धृत की हैं। 50 यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा कि दशवकालिक सूत्र की जब अत्यधिक लोकप्रियता बढी तो अनेक श्वेताम्बर परम्परा के प्राचार्यों ने अपने ग्रन्थों में दशवकालिक की गाथाओं को उद्धरण के रूप में उडित किया / उदाहरणार्थ आवश्यकनियुक्ति", निशीथचूर्णि,५२ उत्तराध्ययन बहदवत्ति५३ और उत्तराध्ययन चणि५४ आदि ग्रन्थों को देखा जा सकता है। 45. दशवालियं तह उत्तरज्झयणाणि की भूमिका, पृ. 12 46. आरातीयैः पुनराचायँ: कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थं दशवकालिकाध पनिबद्धम् / तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णव-जलं घटगृहीतमिव / -सर्वार्थसिद्धि 120 47. तत्त्वार्थभाष्य 1120 48. दसवेयालं च उत्तरज्झयणं / -गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 367 49. कषायपाहुड (जयधवला सहित) भाग 1, पृ. 13125 50. मूलाराधना, आश्वास 4, श्लो. 333, वृत्ति पत्र 611 51. देखें आवश्यकनियुक्ति गा. 141, वृ. पत्र 149 52. निशीथचूणि—११७; 1 / 13; 13106; 11163, 21125, 26, 2 / 359; 2 / 363; 31483, 31547 , // 31, 4 / 32, 4133, 4 / 143, 4 / 157, 4 / 272 53. उत्तराध्ययन वृहद्वृत्ति-१।३१, वृत्ति 59, 213394, 3 / 13 / 186, 51311254, 15 / 2 / 415; 54. उत्तराध्ययन चूणि-१॥३४ पृ. 40, 2 / 41183, 5 / 18 / 137 [26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org