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________________ दूसरा मन्तव्य यह है कि दशवकालिक का नि!हण गणिपिटक द्वादशांगी से किया गया है। यह नि!हण किस अध्ययन का किस अंग से किया गया इसका स्पष्ट निर्देश नहीं है, तथापि मूर्धन्य मनीषियों ने अनुमान किया है कि दशवकालिक के दूसरे अध्ययन में विषय-वामना से बचने का उपदेश दिया गया है, उस संदर्भ में रथनेमि और राजीमती का पावन प्रसंग भी बहुत ही संक्षेप में दिया गया है। उत्तराध्ययन के बाईसवें अध्ययन में यह प्रसंग बहुत ही विस्तार के माथ पाया है। दोनों का मूल स्वर एक सदृश है। तृतीय अध्ययन का विषय मूत्रकृताङ्ग 119 से मिलता है। चतुर्थ अध्ययन का विषय सूत्रकृताङ्ग 111117-8 पौर आचारांग शश१, 2115 से कहीं पर संक्षेप में और कहीं पर विस्तार से लिया गया है। प्राचारांग के द्वितीय श्रतस्कन्ध के उत्तरार्द्ध में भगवान महावीर द्वारा गौतम आदि श्रमणों को उपदिष्ट किए गए पांच महावतों तथा पृथ्वीकाय प्रभृति षड्जीवनिकाय का विश्लेषण है। संभव है इस अध्ययन से चतुर्थ अध्ययन की सामग्री का संकलन किया गया हो। पांचवें अध्ययन का विषय प्राचागंग के द्वितीय अध्ययन लोकविजय के पांचवें उद्देशक और पाठवें, नौवें अध्ययन के दुसरे उद्देशक से मिलता-जुलता है। यह भी संभव है कि आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रथम अध्ययन पिण्डषणा है अत: पांचवां अध्ययन उसी से संकलित किया गया हो। छठा अध्ययन समवायाङ्ग के अठारहवें समवाय के 'वयछक्कं कायछक्कं अकप्पो गिहिभायणं / परियंक निसिज्जा य. सिगाणं सोभवज्जणं' गाथा का विस्तार से निरूपण है। सातवें अध्ययन का मूलस्रोत प्राचारांग 1111635 में प्राप्त होता है। प्राचागंग के द्वितीय श्र तस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन का नाम भाषाजात है, उस अध्ययन में श्रमण द्वारा प्रयोग करने योग्य और न करने योग्य भाषा का विश्लेषण है। संभव है इस आधार से सातवें अध्ययन में विषय-वस्तु की अवतारणा हुई हो। पाठवें अध्ययन का कुछ विषय स्थानांग 81598, 609, 615, आचारांग और सूत्रकृतांग से भी तुलनीय है।४ नौवें अध्ययन में विनयसमाधि का निरूपण है। इस अध्ययन की सामग्री उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन की मामग्री से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। संभव है इस अध्ययन का मूल स्रोत उत्तराध्ययन का प्रथम अध्ययन रहा हो। दसवें अध्ययन में भिक्षु के जीवन और उसकी दैनन्दिनी चर्या का चित्रण है, तो उत्तगध्ययन का पन्द्रहवां अध्ययन भी इसी बात पर प्रकाश डालता है। अत: संभव है, यह अध्ययन उत्तराध्ययन के पन्द्रहवें अध्ययन का ही रूपान्तरण हो, क्योंकि भाव के साथ ही शब्दरचना और छन्दगठन में भी दोनों में प्राय: एकरूपता है। 43. बीयोऽवि अपाएमो गणिपिडगाग्रो वालसंगायो। एअं किर निज्जद मणगस्स अणुग्गाए // -दशवकालिकनियुक्ति, गाथा 18 44. (क) संतिमे तसा पाणा तं जहा-अंडया पोयया जराउया रसया संसेयया समुच्छिमा उब्भिया ओववाइया / -प्राचारांग 11118 तुलना करेंअंडया पोवया जराउया रसया संसेइमा सम्मच्छिमा उब्भिया उबवाइया। –दशवकालिक अध्ययन 4, सूत्र 9 (ख) ण मे देति ण कुप्पेज्जा —ाचारांग 21102 तुलना करेंप्रदेंतस्स न कुप्पेज्जा दशवकालिक 5 / 2 / 28 (ग) सामायिकमाह तस्स तं जंगिहिमत्तेऽसणं ण भक्खति। .--सूत्रकृतांग 112 / 2 / 18 तुलना करेंसन्निही गिहिमतं य रायपिंडे किमिच्छए / -दशवैकालिक 3 / 3 [25] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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