________________ 186] [वशवकालिकसूत्र 174. असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा / प्रगणिम्मि होज्ज निविखत्तं तं च ओवत्तिया दए // 12 // 175. तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं / / बेतियं पडिमाइक्खे, न मे कप्पा तारिसं // 13 // 176. प्रसणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा।। अगणिम्मि होज्ज निक्खित्तं तं च ओयारिया दए // 9 // 177. तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं / __ देतियं पडिप्राइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 65 // + [154-155] यदि प्रशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, पुष्पों से, बीजों से और हरित दूर्वादिकों (हरियाली) से उन्मिश्र हो, तो वह भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्पनीय (अग्राह्य) होता है, इसलिए साधु देने वाली महिला से निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मैं ग्रहण नहीं करता / / 72-73 // [156-157] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य (सचित्त) पानी पर, अथवा उत्तिग और पनक पर निक्षिप्त (रखा हुआ) हो, तो वह भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है। अतएव भिक्षु उस देती हुई महिला दाता को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मैं ग्रहण नहीं करता // 74-75 / / [158-156] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर निक्षिप्त (रखा हुआ) हो तथा उसका (अग्नि का) स्पर्श (संघट्टा) करके दे, तो वह भक्त-पान संयतों के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई (उस महिला) को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्रहण करने योग्य नहीं है / / 76-77 / / [160-161] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य अग्नि पर रखा हमा हो और उसमें (चूल्हे में) ईन्धन डाल कर (साधु को) देने लगे तो वह भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है। इसलिए मुनि देती हुई (उस महिला) से निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है / / 78-76 // [162-163] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर रखा हुआ हो और उसमें से (चूल्हे में से) ईंन्धन निकाल कर (साधु को) देने लगे, तो वह भक्त-पान संयमियों के लिए पाठान्तर +इस निशान से+इस निशान तक की 18 गाथाओं को अन्य प्रचलित प्रतियों में इन दो गाथाओं में संग्रहीत किया गया है-- "एवं उस्सक्किया प्रोसक्किया उज्जालिया पज्जालिया निव्वाविया / उस्सिचिया निस्सिचिया प्रोवत्तिया ग्रोयारिया दए / तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं / दिति पडिग्राइक्खे न मे कप्पइ तारिसं॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org