________________ उपक्रम किया गया। श्रमणों ने कहा-'अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं विज्ञायते न हि'-..-अहो! खेद की बात है, तत्त्व नहीं जाना जा रहा। श्रमणों की बात शय्यम्भव के मस्तिष्क में टकराई पर उसने सोचा यह उपशान्त तपस्वी झूठ नहीं बोलते / 26 हाथ में तलवार लेकर वह अपने अध्यापक के पास पहुंचा और बोला--तत्त्व का स्वरूप बताओ, यदि नहीं बताओगे तो मैं तलवार से तुम्हारा शिरच्छेद कर दूंगा। लपलपाती तलवार को देखकर अध्यापक काँप उठा। उसने कहा-अर्हत् धर्म हो यथार्थ धर्म और तत्त्व है। शय्यम्भव अभिमानी होने पर भी सच्चे जिज्ञासु थे। वे प्राचार्य प्रभव के पास पहुंचे। उनकी पीयूषनावी वाणी से बोध प्राप्त कर दीक्षित हए। प्राचार्य प्रभव के पास उन्होंने 14 पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया और श्र तधरपरम्परा में वे द्वितीय धु तधर हुए। जब शय्यम्भव दीक्षित हुए तब उनकी पत्नी गर्भवती थी 30 ब्राह्मणवर्ग कहने लगा- शय्यम्भव बहुत ही निष्ठर व्यक्ति है जो अपनी युवती पत्नी का परित्याग कर साधु बन गया।३१ स्त्रियाँ शय्यम्भव की पत्नी से पूछती—क्या तुम गर्भवती हो? वह संकोच से 'मणय' अर्थात् मणाक शब्द का प्रयोग करती। इस छोटे से उत्तर से परिवार वालों को संतोष हा / उसने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का नाम माता द्वारा उच्चरित 'मण यं' शब्द के आधार पर 'मनक' रखा गया।३२ वह बहुत ही स्नेह से पुत्र मनक का पालन करने लगी। बालक पाठ वर्ष का हुआ, उसने अपनी मां से पूछा- मेरे पिता का नाम क्या है ? उसने सारा वृत्त सुना दिया कि तेरे पिता जैन मुनि बने और वर्तमान में वे जैन संघ के प्राचार्य हैं। माता की अनुमति लेकर वह चम्पा पहुंचा। प्राचार्य शय्यम्भव ने अपने ही सदश मनक की मुख-मुद्रा देखी तो अज्ञात स्नेह बरसाती नदी की तरह उमड़ पड़ा। बालक ने अपना परिचय देते हुए वहा—मेरे पिता शरयम्भव हैं, क्या आप उन्हें जानते हैं ? शय्यम्भव ने अपने पुत्र को पहचान लिया। मनक को प्राचार्य ने कहा- मैं शय्यम्भव का अभिन्न (एक शरीरभूत) मित्र हं। प्राचार्य के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए उपदेश को सुनकर मनक पाठ वर्ष की अवस्था में मुनि बना। प्राचार्य शय्यम्भव ने बालक मानक की हस्तरेखा देखी। उन्हें लगा-बालक का प्रायुष्य बहुत ही कम है। इसके लिए सभी शास्त्रों का अध्ययन करना संभव नहीं है / 33 दशवकालिक का रचना काल अपश्चिम दश पूर्वी विशेष परिस्थिति में ही पूर्वो से आगम' नियू हण का कार्य करते हैं। 3 प्राचार्य शय्याभव चतुर्दश पूर्वधर थे। उन्होंने अल्पायुष्क मुनि मनक के लिए प्रात्म-प्रवाद से दशवकालिकसूत्र का 29. तेण य सेज्जंभवेण दारमूले ठिएणं तं वयणं सुअं, ताहे सो विचितेइ-एए उवसंता तवरिसणो असच्चं ण वयंति। --दशवै. हारि. वत्ति, पत्रांक 10-11 30, जया य सो पव्वइग्रो तया य तस्स गुढिवणी महिला होत्था / --दशवै. हारि. वृत्ति, पत्रांक 11 (1) 31. अहो शय्यम्भवो भट्टो निष्ठुरेभ्योऽपि निष्ठुर : / स्वा प्रियां यौवनवती सुशीलामपि योऽत्यजत् / / 57 / / --परिशिष्ट पर्व, सर्ग 5 32. मायाए से भणिय 'मणग' ति तम्हा मणमो से णामं कयंति / ---दशवै. हारि. वृत्ति, पत्रांक 11 (2) 33. एवं च चिन्तयामास शय्यम्भवमहामूनिः / अत्यल्पायुरयं बालो भावी श्रु तधरः कथम् // 8 // परिशिष्ट पर्व, सर्ग 5 34. अपश्चिमो दशपूर्वी श्र तसारं समुद्धरेत् / चतुर्दशपूर्वधरः पुनः केनापि हेतुना // 13 // -परिशिष्ट पर्व, सर्ग 5 [ 23 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org