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________________ अगस्त्यसिंह स्थविर 22 का अभिमत है। इसमें चरण २३(मूलगुण) व करण२४ (उत्तरगुण) इन दोनों का अनुयोग है। प्राचार्य वीरसेन के अभिमतानुसार दशवकालिक प्राचार और गोचर की विधि का वर्णन करते वाला मूत्र है / 25 ज्ञानभूषण के प्रशिष्य शुभचन्द्र के अभिमतानुसार दशवकालिक का विषय गोचरविधि और पिण्डविशुद्धि है। 26 प्राचार्य श्र तसागर के अनुसार इसमें वक्ष-कुसुम आदि का भेदकथक और यतिया के प्राचार का कथक कहा है। 27 दशवकालिक में प्राचार-गोचर के विश्लेषण के साथ ही जीव-विद्या, योग-विद्या जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा भी की गई है। यही कारण है इस पागम की रचना होने के पश्चात् अध्ययन-क्रम में भी प्राचार्यों ने परिवर्तन किया, जैसा कि हम पूर्व लिख चुके हैं। व्यवहारभाष्य के अनुसार अतीत काल में प्राचारांग के द्वितीय लोकविजय अध्ययन के ब्रह्मचर्य नामक पाच उद्देशक के ग्रामपंच सूत्र को बिना जाने-पढ़े कोई भी श्रमण और श्रमगी पिण्ड कल्पी अर्थात् भिक्षा ग्रहण करने योग नहीं हो सकता था। जब दशवकालिक का निर्माण हो गया तो उसके पिण्डैषणा नामक पांचवें अध्यपन को जानने व पढ़ने वाला पिण्डकल्पी होने लगा। यह वर्णन दशवैकालिक के महत्त्व को स्पष्ट रूप से उजागर करता है। 28 दशवकालिक के रचनाकार का परिचय प्रस्तुत आगम के कर्ता प्राचार्य शय्यम्भव हैं। वे राजगह नगर के निवासी थे। वत्स गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म वीर निर्वाण 36 (विक्रम पूर्व 434) में हुआ। वे वेद और वेदांग के विशिष्ट ज्ञाता थे। जैन शासन के प्रवल विरोधी थे, जैनधर्म के नाम से ही उनकी आंखों से अंगारे बरसते थे। जैनधर्म के प्रबल विरोधी उस प्रकाण्ड विद्वान् शय्यम्भव को प्रतिबोध देने के लिए प्राचार्य प्रभव के आदेश से दो श्रमण शय्यम्भव के यज्ञबाट में गए और धर्मलाभ कहा। श्रमणों का घोर अपमान किया गया। उन्हें बाहर निकालने का 22. अगस्त्यसिंह स्थविर : दशवकालिकचूणि 23. चरणं मूलगुणाः / वय-समणधम्म संयम, वेयावच्चं च बंभगुत्तीयो। णाणाइतियं तव, कोहनिग्गहाई चरणमेयं / / -प्रवचनसारोद्धार, गाथा 552 24. करणं उत्तरगुणाः / पिडविसोही समिई भावण पडिमा इ इंदियनिरोहो। पडिलेहण गुत्तीरो, अभिग्गहा चेव करणं तु॥ -प्रवचनसारोद्धार, गाथा 563 25. दसवेयालियं पायार-गोयर-विहि वण्णेइ।। ----षट्खंडागम, सत्प्ररूपणा 1-1-1, पृ. 97 26. जदि गोचरस्स विहि, पिंडविसुद्धि च जं परूवेहि / दसवेनालियसुत्त दहकाला जत्थ संवुत्ता // —अंगपण्णत्ती 3/24 27. वृक्षकुसुमादीनां दशानां भेदकथकं यतीनामाचारकथकं च दशवकालिकम् / -तत्त्वार्थवृत्ति श्रुतसागरीया, पृ. 67 28. वितितंमि बंभचेरे पंचम उद्दे से ग्रामगंधम्मि / सूतमि पिंडकप्पो इह पूण पिंडेसणाए प्रो॥ -व्यवहारभाष्य, उ. 3, गा, 175 [22] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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