________________ आगमों पर भी अनेक टीकाएँ हैं। उन टीकात्रों के प्राधार से ही किसी प्रागम को मूल सूत्र की संज्ञा दी गई हो तो वे सभी पागम 'मूल सूत्र' कहे जाने चाहिए / हमारी दष्टि से जिन आगमों में मुख्य रूप से श्रमण के प्राचार सम्बन्धी मूल गुणों-महाव्रत, समिति, गुप्ति, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि का निरूपण है और जो श्रमण-जीवनचर्या में मूल रूप से सहायक बनते हैं और जिन आगमों का अध्ययन सर्वप्रथम अपेक्षित है, उन्हें मूल सूत्र कहा गया है। हमारे प्रस्तुत कथन का समर्थन इस बात से होता है कि पहले श्रमणों का अध्ययन प्राचारांग से प्रारम्भ होता था। जब दशवकालिक सूत्र का निर्माण हो गया तो सर्वप्रथम दशकालिक का अध्ययन कराया जाने लगा और उसके पश्चात् उत्तराध्ययन सूत्र पढ़ाया जाने लगा।'५ पहले प्राचागंग के शस्त्र-पक्षिा अध्ययन से शैक्षिकी उपस्थापना की जाती थी, जब दशवकालिक की रचना हो गई तो उसके चतुर्थ अध्ययन से उपस्थापना की जाने लगी। मूल सूत्रों की संख्या के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। तथापि यह पूर्ण सत्य है कि सभी विज्ञों ने दशवकालिक को मूल सूत्र माना है। चाहे समयसुन्दर गणि हो,'७ चाहे भावप्रभसूरि हो, चाहे प्रोफेसर बेवर और प्रोफेसर बूलर हो, चाहे डॉ. सान्टियर या डॉ. विन्टरनिज हों, चाहे डॉ. गेरिनो या डॉ. शुब्रिग हो—सभी ने प्रस्तुत प्रागम को मूल सूत्र माना है / 7, दशवकालिक का महत्त्व / मूल आगमों में दश वैकालिक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचार्य देववाचक ने प्रावश्यक-व्यतिरिक्त के कालिक और उत्कालिक ये दो भेद किए हैं। उन भेदों में उत्कालिक प्रागमों की सूची में दशवकालिक प्रथम है। यह पागम अस्वाध्याय समय को छोड़कर सभी प्रहरों में पढ़ा जा सकता है। चार अनुयोगों में दशवकालिक का समावेश चरणकरणानुयोग में किया जा सकता है। यह नियुक्तिकार द्वितीय भद्रबाह 2' और 15. आयारस्स उ उरि, उत्तरज्झयणा उ आसि पुत्वं तु / दसयालिय उवरि इयाणि कि तेन होवंती उ॥ -व्यवहारभाष्य उद्देशक 3, मा. 176 16. पुव्वं सत्थपरिणा, अधीय पढियाइ होइ उवट्ठवणा। इण्हिच्छज्जीवणया, कि सा उ न होउ उवटवणा // --व्यवहारभाष्य उद्देशक 3, गा. 174 17. समाचारीशतक 18. अथ उत्तराध्ययन-आवश्यक-पिण्डनियुक्ति प्रोपनियुक्ति-दशवकालिक-इति चत्वारि मूलसूत्राणि -जैनधर्मवरस्तोत्र, श्लोक 30 को स्वोपज्ञवृत्ति / 19. ए हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर श्रॉफ दी जैन्स, पृ. 44-45, ले. एच. आर. कापडिया 20. से कि तं उक्कालियं? उक्कालियं अणेगविहं पण्णत्त, तं जहा-दसवेयालियं० / -नन्दी सूत्र 71 21. अपुहुत्तपुहुत्ताई निद्दिसिउं एत्थ होइ अहिगारो। चरणकरणाणुओगेण तस्स दारा इमे हुँति / / –दशवकालिकनियुक्ति, गाथा 4 [ 21 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org