________________ नहीं हया था। विक्रम संवत् 1334 में प्रभावकचरित्र में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल और छेद यह विभाग प्राप्त होता है। इसके बाद 'समाचारी-शतक' में भी उपाध्याय समयसुन्दर मणी ने इसका उल्लेख किया है। भूलसूत्र संज्ञा क्यों ? दशवकालिक और उत्तराध्ययन प्रादि को मूल सूत्र संज्ञा क्यों दी गई है ? इस सम्बन्ध में विज्ञों में विभिन्न मत हैं। पाश्चात्य विज्ञों ने भारतीय साहित्य का जिम गहराई, रुचि और अध्यवसाय से अध्ययन किया है वह वस्तुत: प्रशंसनीय है। कार्य किस सीमा तक हुआ है ? कितना उपादेय है ? यह प्रश्न अलग है, पर उन्होंने कठिन श्रम और उत्साह के साथ जो प्रयत्न किया है, यह भारतीय चिन्तकों के लिए प्रेरणादायी है। जर्मनी के सुप्रसिद्ध प्राच्य अध्येता प्रो. शन्टियर ने उत्तराध्ययनमूत्र की प्रस्तावना में लिखा है कि मूल सूत्र में भगवान महावीर के मूल शब्द संगृहीत हैं जो स्वयं भगवान् महावीर के मुख से निसृत है / 14 सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान डॉ. वाल्टर शूब्रिग ने Lax Religion Dyaina (जर्मन भाषा में लिखित) पुस्तक में लिखा है कि मुल मूत्र नाम इसलिए दिया गया ज्ञात होता है कि श्रमण और श्रमणियों के माधनामय जीवन के मूल में प्रारम्भ में उनके उपयोग के लिए इनका निर्माण हुआ / इटली के प्रोफेसर गेरीनो ने एक विचित्र कल्पना की है। उस कल्पना के पीछे उनके मस्तिष्क में ग्रन्थ के 'मूल' और 'टीका' ये दो रूप मुख्य रहे हैं। इसलिए उन्होंने मूल' ग्रन्थ के रूप में मूल सूत्र को माना है क्योंकि इन पागम-ग्रन्थों पर नियुक्ति, चणि, टीका प्रादि विपुल व्याख्यात्मक साहित्य है। व्याख्या साहित्य में यत्रतत्र मूल शब्द का प्रयोग हुना है, जिसकी वे टीकाएँ और व्याख्याएँ है। उत्तराध्ययन और दशवकालिक पर विपुल व्याख्यात्मक साहित्य है, इसलिए इन प्रागमों को मूल सूत्र कहा गया है। टीकाकारों ने मूल ग्रन्थ के अर्थ में मूल सूत्र का प्रयोग किया है, संभव है उसी से यह आगम मूल सूत्र कहे जाने लगे हों। पाश्चात्य मूर्धन्य मनीषियों ने मूल सूत्र की अभिधा के लिए जो कल्पनाएँ की हैं, उनके पीछे किमी अपेक्षा का आधार अवश्य है, पर जब हम गहराई से चिन्तन करते हैं तो उनकी कल्पना पूर्ण रूप से सही नहीं लगती। प्रो. सरपेन्टियर ने भगवान महावीर के मूल शब्दों के साथ मूल सूत्रों को जोड़ने का जो समाधान किया है, वह उत्तराध्ययन के साथ कदाचित् संगत हो तो भी दशवकालिक के साथ उसकी संगति विल्कुल नहीं है। यदि हम भगवान महावीर के साक्षात् वचनों के आधार पर 'मूल सूत्र मानते हैं तो पाचारांग, सूत्रकृतांग प्रभति अंग ग्रन्थ, जिन का सम्बन्ध सीधा गणधरों से रहा है मूल सूत्र कहे जाने चाहिए। पर ऐसा नहीं है, इसलिए प्रो. सरपेन्टियर की कल्पना घटित नहीं होती। डॉ. वाल्टर शुब्रिग के मतानुसार मूल सूत्र के लिए श्रमणों के मूल नियम, परम्पराओं एवं विधि-निषेधों की दृष्टि से मूल सूत्र की अभिधा दी गई। पर यह समाधान भी पूर्ण रूप से सही नहीं है। दशवकालिक में तो यह बात मिलती है पर अन्य मूल सूत्रों में अनेक दृष्टान्त जैन धर्म-दर्शन सम्बन्धी अनेक पहलनों पर विचार किया गया है। इसलिए डॉ. शूबिंग का चिन्तन भी एकांगी पहल पर ही अधित है। प्रो. गेरिनो ने मूल और टीका के अाधार पर 'मूल सूत्र' अभिधा की कल्पना की है, पर उनकी यह कल्पना बहुत ही स्थूल है। इस कल्पना में चिन्तन की गहराई का अभाव है। मूल सूत्रों के अतिरिक्त अन्य 13. प्रभावकचरित्र, प्रार्य रक्षित प्रबन्ध, श्लोक 241 14. The Uttradhyayana Sutra, page 32 [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org