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________________ और औपपातिक सूत्र के अनुसार सभी तीर्थकर अर्धमागधी भाषा में ही उपदेश करते हैं। चारित्र धर्म की प्राधिना और साधना करने वाले जिज्ञासु मन्दबुद्धि स्त्री-पुरुषों पर अनुग्रह करके जन-सामान्य के लिए सिद्धान्त सुबोध हो, इसलिए प्राकृत में उपदेश देते हैं। 3 प्राचार्य जिनदास गणी महत्तर अर्धमागधी का अर्थ दो प्रकार से करते हैं यह भाषा मगध के एक भाग में बोली जाती थी, इसलिए अर्द्धमागधी कहलाती है, दूसरे इस भाषा में अट्ठारह देशी भाषाओं का सम्मिश्रण हुआ है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मागधी और देशज शब्दों का इस भाषा में मिश्रण होने से यह अर्धमागधी कहलाती है। अर्धमागधी को ही सामान्य रूप से प्राकृत कहते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने आगम साहित्य की भाषा को आर्ष प्राकृत कहा है। चिन्तकों का अभिमत है कि आगमों की भाषा में भी दीर्घकाल में परिवर्तन हया है। उदाहरण के रूप में प्राचार्य शीलांक ने सूत्रकृताङ्ग को टीका में स्पष्ट रूप से लिखा है कि सूत्रादर्शों में अनेक प्रकार के सुत्र उपलब्ध होते हैं, पर हमने एक ही आदर्श का स्वीकार कर विवरण लिखा है। यदि कहीं सूत्रों में विसंवाद दृग्गोचर हो तो चित्त में व्यामोह नहीं करना चाहिए।" कहीं पर 'य' श्रुति की प्रधानता है तो कहीं पर 'त' श्रुति की, कहीं पर हस्व स्वर का प्रयोग है तो कहीं पर ह्रस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर का प्रयोग है। प्रागमप्रभावक श्री पुण्यविजय जी महाराज ने बहतकल्पसूत्र, कल्पसूत्र और अंगविज्जा' ग्रन्थों की प्रस्तावना में इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है। प्रागमों का वर्गीकरण प्रागमों का सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण है-अंग, उपांग, मूल और छेद / प्राचार्य देववाचक ने जो आगमों का वर्गीकरण किया है उसमें न उपांग शब्द का प्रयोग हुआ है और न ही मूल और छेद शब्दों का ही। वहाँ पर अंग और अंगबाह्य शब्द आया है। तत्वार्थभाष्य' में सर्वप्रथम अंगबाह्य आगम के अर्थ में उपांग शब्द का प्रयोग हमा है। उसके पश्चात सुखबोधा ममाचारी,'विधिमार्गप्रपा,'' वायनाविही 12 आदि में उपांग विभाग का उल्लेख है। किन्तु मूल और छेद मूत्रों का विभाग किस समय हुना, यह अभी अन्वेषणीय है। दशवकालिक की नियुक्ति, चूणि, हारिभद्रीया वृत्ति और उत्तराध्ययन की शान्त्याचार्य कृत वहवृत्ति में मूल सूत्र के सम्बन्ध में कुछ भी चर्चा नहीं है। इससे स्पष्ट है कि ग्यारहवीं शताब्दी तक 'मूल सूत्र' यह विभाग 2. औपपातिक सूत्र 3. दशवकालिक, हारिभद्रीया वृत्ति 4. मगविसयभासाणिबद्ध अद्धमागह, अद्रारस देसीभासाणिमयं वा अद्धमागहं। -निशीथणि 5. मूत्रकृताङ्ग, 2/2-39, सूत्र को टीका 6. बृहत्कल्पसूत्र, भाग 6, प्रस्तावना, पृष्ठ 57 7. कल्पसूत्र, प्रस्तावना, पृष्ठ 4-6 8. अंगविज्जा, प्रस्तावना, पृष्ठ 8-11 9. तत्त्वार्थभाष्य 1/20 10. सुखबोधा समाचारी, पृष्ठ 134 11. विधिमार्गप्रपा के लिए देखिए जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 1, प्रस्तावना पृ. 38 12. वायनाविही, पृष्ठ 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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