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________________ प्रस्तावना दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन चिरन्तन सत्य की अभिव्यक्ति का माध्यम : साहित्य आत्मा और अनात्मा संबंधी भावनाओं की यथातथ्य अभिव्यक्ति साहित्य है / साहित्य किसी भी देश, समाज या व्यक्ति की सामयिक समस्याओं तक ही सीमित नहीं है, वह सार्वदेशिक और सार्वकालिक सत्य-तथ्य पर प्राधत है। साहित्य, सम्प्रदाय-विशेष में जन्म लेकर भी सम्प्रदाय के संकीर्ण घेरे में प्राबद्ध नहीं होता। कुल मिट्टी में से जन्म लेकर भी मिट्टी से पृथक होता है और सौरभ फल में उत्पन्न होकर भी फल से पृथक अस्तित्व रखता है। यही स्थिति साहित्य की है। साहित्य मानव के विमल विचारों का अक्षय कोष है। साहित्य में जहां उत्कृष्ट प्राचार और विचार का चित्रण होता है वहाँ उत्थान-पतन, सुख-दुःख, आशा-निराशा की भी सहज अभिव्यक्ति होती है। यदि हम विश्व-साहित्य का गहराई से पर्यवेक्षण करें तो स्पष्ट परिज्ञात होगा कि मौन्दर्य सुषमा को निहार कर मानव पुलकित होता रहा है तो कारुण्यपूर्ण स्थिति को निहार कर करुणा की प्रश्र - धारा भी प्रवाहित करता रहा है। जहाँ उसने जीवन-निर्माण के लिए अनमोल आदर्श उपस्थित किए हैं, वहां जीवन को पतन से बचाने का मार्ग भी सुभाया है। जीवन और जगत् की, प्रात्मा और परमात्मा की व्याख्याएँ करना साहित्य का सदा लक्ष्य रहा है। इस प्रकार साहित्य में साधना और अनुभुति का, सत्यम, शिवम, सुन्दरम् का अद्भुत समन्वय है। साहित्यकार विचार-सागर में गहराई से डुबकी लगाकर चिन्तन की मुक्ताएँ बटोर कर उन्हें इस प्रकार शब्दों की लड़ी की कड़ी में पिरोता है कि देखने वाला विस्मित हो जाता है। जीवन की नश्वरता और अपूर्णता की अनुभूति तो प्रायः सभी करते हैं, पर सभी उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते / कुछ विशिष्ट व्यक्ति ही शब्दों के द्वारा उस नश्वरता और अपूर्णता को चित्रित कर एवं जन-जन के अन्तर्मानस में त्याग और वैराग्य की भावना उबुद्ध कर उन्हें प्रात्मदर्शन के लिए उत्प्रेरित करते हैं। चिरन्तन सत्य की अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से होती है। वैचारिक क्रान्ति का जीता-जागता प्रतीक : प्राकृत साहित्य प्राकृत साहित्य का उद्भव जन-सामान्य की वैचारिक कान्ति के फलस्वरूप हुआ है। श्रमण भगवान महावीर और तथागत बुद्ध के समय संस्कृत भाषा आभिजात्य वर्ग की थी। वे उस भाषा में अपने विचार व्यक्त करने में गौरवानुभूति करते थे। जन बोली को वे घृणा की दृष्टि से देखते थे। ऐसी स्थिति में श्रमण भगवान महाबीर और तथागत बुद्ध ने उस युग की जन-बोली प्राकृत और पाली को अपनाया। यही कारण है, जैन ग्रागमों की भाषा प्राकृत है और बौद्ध त्रिपिटकों की भाषा पाली है। दोनों भाषाओं में अद्भुत सांस्कृतिक ऐक्य है। दोनों भाषाओं का उद्गम-बिन्दु भी एक है, प्रायः दोनों का विकास भी समान रूप से ही हुआ है। ममवायाङ्ग' 1. समवायाङ्ग सूत्र, पृष्ठ 60 [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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