________________ 164] [दशवकालिक सूत्र न रोके / मूत्रनिरोध से मुख्यतया नेत्रज्योति क्षीण हो जाती है, तथा मलनिरोध से तेज एवं जीवनशक्ति का नाश होने की सम्भावना है / अत: मलमूत्रबाधा नहीं रोकनी चाहिए। प्राचारांग में मलमूत्र की आकस्मिक बाधा के निवारणार्थ स्पष्ट विधि बतलाई गई है 133 प्रासुक स्थान : यह जैन पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है-अचित्त या जीवरहित / किन्तु यहाँ प्रसंगवश अर्थ होगा-'जो भूमि दीमक, कोट आदि जीवों से युक्त न हो, तत्काल अग्निदग्ध न हो, सचित्त जल, वनस्पति आदि से युक्त न हो, इत्यादि प्रकार से निर्दोष या विशुद्ध हो / '34 ___अंधकारपूर्ण निम्न द्वार वाले कोठे में भिक्षार्थ प्रवेश निषिद्ध क्यों? इसका आगमसम्मत कारण हिंसा है, क्योंकि वहाँ जीवजन्तु न दीखने से ईर्यासमिति का शोधन नहीं होता, अंधेरे में दाता के या स्वयं के गिर पड़ने की आशंका है / इसीलिए इसे दायकदोष भी बताया है 135 तत्काल लीये या गीले कोठे में प्रवेश निषिद्ध-इसके निषेध के दो कारण हैं तत्काल लीपे एवं गीले प्रांगन पर चलने से जलकाय एवं सम्पातिम जीवों की विराधना होती है। हरिभद्र सूरि के अनुसार तत्काल लीपे और गीले कोष्ठक में प्रवेश करने से आत्मविराधना और संयमविराधना होती है / 36 एलकादि का उल्लंघन या अपसारण निषिद्ध क्यों ?-चूणि के मतानुसार-एलक आदि को हटाने या लांघ कर जाने से वह सींग से मुनि को मार सकता, कुत्ता काट सकता, पाडा मार सकता है / बछड़ा भयभीत होकर बन्धन तोड़ सकता है, मुनि के पात्र फोड़ सकता है। बालक को हटाने से उसे पीड़ा हो सकती है, उसके अभिभावकों को साधु के प्रति अप्रीति उत्पन्न हो सकती है। नहाधो कर कौतुक मंगल किये हुए बालक को हटाने या लांघ कर जाने से बालक को प्रदोष (अमंगल) से मुक्त कर देने का लांछन लगाया जा सकता है / अतः एलक आदि को हटाने से शरीर और संयम दोनों की विराधना और शासन की लघुता होने की संभावना है। 33. (क) भिक्खायरियाए पविट्ठण वच्चमुत्तं न धारयव्वं, किं कारणं ? मुत्तनिरोधे चक्खुबाधामो अाभवंति, बच्च निरोहे य तेयं जीवियमविरुधेज्जा, तम्हा बच्च मुत्तनिरोधो न कायब्बो त्ति ।—जि.च. 175 (ख) दशवै. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 165 34. (क) प्रासुकं प्रगतासु निर्जीवमिर्थः / -हा. टी., पत्र 181 (ख) 'प्रासुकं बीजादिरहितम् ।'–हा. टी., पृ. 178 जो भिक्खा निकालिज्जइ त तमसं, तत्थ अचक्खविसए पाणा दुक्खं पच्चवेक्खिज्जति त्ति काउं नीयदुवारे तमसे कोट्टो वज्जेयन्वो। -जि. चू., पृ. 175 / (ख) ईर्याशुद्धिर्नभवति / -हा. वृ., पत्र 167 (क) संपातिमसत्तविराहणत्थं परितावियाग्रो वा पाउक्कानो त्ति काउं बज्जेज्जा। -जिन, चणि, पृ. 176 (ख) 'उलित्तमेत्ते आउकातो अपरिणतो, निस्सरणं वा दायगस्स होज्जा, अतो तं परिवज्जए।' -अगस्त्यचूणि, पृ. 105 (ग) 'संयमात्मविराधनापत्तेरिति ।'-हा, टी., पृ. 167 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org