________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [165 एलगं : एलक : दो अर्थ---(१) चूर्णिकार के अनुसार बकरा, (2) टीकाकार आदि के अनुसार-भेड़ / 37 105. असंसत्तं फ्लोएज्जा, नाइदूराव लोयए / .. उप्फुल्लं न विणिज्झाए, निय?ज्ज अयंपिरो / / 32 / / 106. अइभूमि न गच्छेज्जा, गोयरग्गगओ मुणी। कुलस्स भूमि जाणित्ता, मियं भूमि परक्कम्मे / / 24 / / 107. तत्थेव पडिलेहेज्जा भूमिभागं वियफ्षणो। सिणाणस्स य वच्चस्स संलोग परिवज्जए / / 25 / / 108. दग-मट्टिय-प्रायाणे बीयाणि हरियाणि य / परिवज्जतो चिट्ठज्जा सब्धिदियसमाहिए // 26 / / [105] (गोचरी के लिए घर में प्रविष्ट भिक्षु) आसक्तिपूर्वक (कुछ भी-आहार या किसी सजीव-निर्जीव पदार्थ को) न देखे; अतिदूर (दृष्टि डाल कर) न देखे, उत्फुल्ल दृष्टि से (प्रांखें फाड़-फाड़ कर) न देखे; तथा भिक्षा प्राप्त न होने पर बिना कुछ बोले (वहां से) लौट जाए // 23 // [106] गोचरान के लिए (घर में) गया हुआ मुनि अतिभूमि (गृहस्थ के चौके में मर्यादित की गई भूमि का अतिक्रमण करके आगे) न जाए, (किन्तु उस) कुल (घर) की (मर्यादित) भूमि को जान कर मित (मर्यादित या अनुज्ञात) भूमि तक ही जाए (अर्थात्-परिमित स्थान तक जाकर ही खड़ा रहे ) // 24 // [107] विचक्षण साधु वहाँ (मितभूमि में) ही उचित भूभाग का प्रतिलेखन करे, (वहाँ खड़े हुए) स्नान और शौच के स्थान की ओर दृष्टिपात न करे / / 25 / / / [108] सर्वेन्द्रिय-समाहित भिक्षु (सचित्त) पानी और मिट्टी लाने के मार्ग तथा बीजों और हरित (हरी) वनस्पतियों को वर्जित करके खड़ा रहे / / 26 // विवेचन-गोचरी के लिए प्रविष्ट मुनि का कायचेष्टासंयम-प्रस्तुत चार गाथासूत्रों (सू. 105 से 108 तक) में भिक्षा के लिए प्रविष्ट मुनि को कहाँ, कैसे, किस प्रकार के इन्द्रिय संयम के साथ खड़ा रहना चाहिए ? इससे सम्बन्धित विधिनिषेध का प्रतिपादन किया गया है। 37. (क) एलपो-छागो ।—जिन. चूणि, पृ. 176 (ख) एडकं-मेषम् ।—हारि. वृत्ति, पृ. 167 (ग) 'एत्थ पच्चवाता-एलतो सिंगेण फेट्टाए वा पाहणेज्जा / दारतो खलिएण दुक्खवेज्जा, सयणो वा ते अपत्तिय-उप्फोसण-कोउयादीणि पडिलग्गे वा गेण्हणातिपसंग वा करेज्जा / सुणतो खाएज्जा / बच्छतो वितत्थो बंधच्छेय-भायणातिभेदं करेज्जा / विऊहणे वि एते चेव (दोसा) सविसेसा / ' --अगस्त्य चूणि, पृ. 105 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org