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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [163 अचियत्तकुलं-अप्रीतिकर कुल-जहाँ या जिस समय (जैसे कि--किसी के यहाँ किसी स्वजन की मृत्यु हो गई हो, या परस्पर उग्र कलह हो रहा हो, उस समय) साधु-साध्वी के भिक्षार्थ जाने से गृहस्थ को अप्रीति उत्पन्न हो, जहाँ साम्प्रदायिक या प्रान्तीय द्वेषवश या शंकावश गृहस्थ को साधु के प्रति द्वेष पैदा हो, जहाँ भिक्षा के लिए निषेध तो न हो, किन्तु उपेक्षाभाव हो, साधु के जाने पर कोई भी कुछ न देता हो, ऐसे अप्रीतिकर घर में भिक्षार्थ प्रवेश निषिद्ध बताया है, क्योंकि वहाँ जाने से मुनि के निमित्त से उस गृहस्थ को संक्लेश उत्पन्न होगा 130 प्रीतिकरकुल-जिस घर में साधु-साध्वी का भिक्षार्थ जाना-माना प्रिय हो, या जिस घर में भावनापूर्वक साधुवर्ग को दान देने की उत्कण्ठा हो / ' शाणी, प्रावार : शाणी :-(1) सन (पटसन) या अलसी से बनी हुई चादर / प्रावार : (1) सूती रोएँदार चादर (प्रावरण), (3) कम्बल-कई बार गृहस्थ लोग अपने घर के दरवाजे को सन की चादर या वस्त्र से अथवा सूती रीएँदार वस्त्र या कम्बल से ढंक देते हैं और निश्चित होकर घर में खाते-पीते, आराम करते हैं अथवा गृहणियाँ स्तानादि करती हैं, उस समय बिना अनुमति लिये यदि कोई द्वार पर से वस्त्र को हटा कर या खोल कर अन्दर चला जाता है तो उन्हें बहुत अप्रिय लगता है। प्रवेशकर्ता अविश्वसनीय बन जाता है। कई गृहस्थ तो व्यवहार में अकुशल ऐसे साधु को टोक देते हैं, उपालम्भ भी देते हैं। ऐसे दोषों को ध्यान में रख कर अनुमति लिए बिना ऐसा करने का निषेध किया गया है। साथ ही कपाट, जो कि चूलिये वाला हो तो उसे खोलने में जीवहिंसा को सम्भावना है, क्योंकि उसे खोलते समय वहाँ कोई जीव बैठा हो तो उसके मर जाने की सम्भावना है / व्यावहारिक असभ्यता भी है / 32 / / मलमूत्र की बाधा लेकर न जाए, न बाधा रोके-गोचरी के लिए जाते समय पहले ही मल-मूत्र को हाजत से साधु निवृत्त हो जाए, फिर भी अकस्मात् पुनः बाधा हो जाए तो मुनि विधिपूर्वक प्रासुक स्थान देखकर, गृहस्थ से अनुमति ले कर वहाँ मल-मूत्रविसर्जन कर ले, किन्तु बाधा 30. (क) "अचियत्त अप्पितं, अणिदो पवेसो जस्स सो अच्चियत्तो, तस्स जं कूलं तं न पविसे, अहवा ण चागो (दाण) जत्थ पवत्तइ, तं दाणपरिहीणं केवल परिस्समकारी तं ण पविसे।" -अगस्त्यचूणि, पृ. 104 (ख) अचि अत्तकुलम्-अप्रीतिकुलं यत्र प्रविशद्भिः साधुभिरप्रीति रुत्पद्यते, न च निवारयन्ति कुतश्चि निमित्ता ___ न्तरात् एतदपि न प्रविशेत् तत्संक्लेशनिमित्तत्वप्रसंगात् // हारि. वृ., पत्र 166 31. चियत्त इनिक्खमणपवेस, चागसंपणे वा।"-ग्र. च., पृ. 104 32. (क) 'साणी नाम सणवक्केहि विज्जइ, अलसिमयी वा / ' (ख) 'कप्पासितो पडो सरोमो पावारतो।'-अगस्त्यणि, पृ. 1-4 (ग) प्रावारः प्रतीतः कम्बलाद्य पलक्षणमेतत् / हारि. वृत्ति, पत्र 167 (घ) त काउं ताणि मिहत्थाणि वीसस्थाणि अच्छंति, खायंति पियंति सइरालावं कुव्वंति, मोहंति वा, तं नो अवपंगुरेज्जा ।"तेसि अप्पतियं भवइ, जहा एते एत्तिलयं पि उवयारं न याणंति, जहा णावगुणियध्वं / लोगसंववहारबाहिरा वरागा, एवमादि दोसा भवंति। -जि. च., पृ. 175 (ङ) "कवाडं दारपिहाणं तं ण पणोलेज्जा , तत्थ त एव दोसा, यंत्रे य सत्तबहो। -अ. च., पृ. 104 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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