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________________ 154] [दशवकालिकसूत्र शब्दादि विषयों के प्रति उसका भी ध्यान न जाए। जिनदास महत्तर ने इस सम्बन्ध में गाय के बछड़े और वणिक पुत्रवधू का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है एक वणिक के यहाँ अत्यन्त सलौना गाय का छोटा-सा बछड़ा था। घर के सभी लोग उसे प्यार से पुचकारते और खिलाते-पिलाते थे। एक बार वणिक् के यहाँ प्रीतिभोज था। सभी लोग उसमें लगे हुए थे। बेचारा बछड़ा भूखा-प्यासा दोपहर तक खड़ा रहा। एकाएक पुत्रवधु ने उसकी रंभाने की आवाज सुनी तो गहनों-कपड़ों से सुसज्जित अवस्था में ही वह घास-चारा एवं पानी लेकर बछड़े के पास पहुँची। बछड़ा अपना चारा खाने में एकाग्र हो गया। उसने पुत्रवधू के शृगार और साजसज्जा की ओर ताका तक नहीं। इसी प्रकार साधु भी बछड़े की तरह केवल आहारपानी की गवेषणा की ओर ही ध्यान रखे / पुरओ जुगमायाए : व्याख्या-भिक्षाचर्या के लिए गमन करते समय उपयोग रख कर चलना चाहिए, इसी का विधान प्रस्तुत पंक्ति में है। इसका शब्दशः अर्थ है-पागे युगमात्र भूमि देखकर चले / यहाँ ईर्यासमिति की परिपोषक द्रव्य और क्षेत्र-यतना का उल्लेख किया गया है। जीव-जन्तुषों को देख कर चलना द्रव्ययतना है, जबकि युगमात्र भूमि को देख कर चलना क्षेत्रयतना है / युग के यहाँ तीन अर्थ किये गए हैं—(१) गाड़ी का जुग्रा, (2) शरीर और (3) युग-चार हाथ / सब का तात्पर्य लगभग एक ही है / मार्ग में त्रस-स्थावर जीवों की रक्षा का विधान-साधु विना देखे-भाले अंधाधुध न चले, लगभग 4 हाथ प्रमाण भूमि को या आगे-पीछे दांए-बांए देखता हुमा चले, ताकि द्वीन्द्रियादि प्राणी, सचित्त मिट्टी, पानी और वनस्पति की रक्षा कर सके। 'बीय हरियाई' आदि पदों का अर्थ-बीज शब्द से यहाँ वनस्पति के पूर्वोक्त दसों प्रकारों का तथा हरित शब्द से बीजरुह वनस्पतियों (धान्य, चना, जौ, गेहूं आदि) का ग्रहण किया गया है। 8. (क) 'प्रज्वविखत्तेण चेतसा नाम णो अट्टझाणोवगो उक्खेवादिणुवउत्तो।' –जि. चू., पृ. 168 (ख) 'अन्याक्षिप्तेन चेतसा'-वत्स-वणिग्जायादृष्टान्तात् शब्दादिष्वगतेन चेतसा अन्तःकरणेन एषणोपयुक्तन / -हारि. वृत्ति, पत्र 163 9. (क) “पुरो नाम अग्गो "चकारेण सुणमादीण रक्खणट्ठा पासपो वि पिटुप्रो वि उवयोगो कायव्वो।" -जि. च., पृ. 158 (ख) 'जुगं सरीरं भण्णइ' / --वही, पृ. 168 (ग) 'युगमात्रं च चतुर्हस्तप्रमाणम् प्रस्तावात् क्षेत्रम् / ' –उत्तरा. बृ., वृ. 2417 (घ) जुगमिति बलिवहसंदागणं सरीरं वा तावम्मत्तं पूरतो। —अ. चू., पृ. 99 (ङ) दन्वो चक्खसा पेहे, जुगमित्तं च खेत्तो। -उत्तरा. 247 10. दशव. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 137-138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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