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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा। [155 दगमट्टियं : दो अर्थ-(१) उदक (जल) प्रधान मिट्टी अथवा (2) अखण्डरूप में भीगी हुई सजीव मिट्टी।" किस मार्ग से न जाए, जाए ? : शब्दार्थ-ओवायं-अवपात-खड्डा या गड्ढा, विसमं-ऊबड़खाबड़-ऊँचा-नीचा विषम स्थान / खाणु-स्थाणु-ठूठ, कटा हुआ सूखा वृक्ष या अनाज के डंठल / विज्जलं-पानी सूख जाने पर जो कीचड़ रह जाता है, वह / पंकयुक्त मार्ग को भी विजल कहते हैं / ऐसे विषम मार्ग से जाने में शारीरिक और चारित्रिक दोनों प्रकार की हानि होती है। गिर पड़ने या पैर फिसल जाने से हाथ, पैर आदि टूटने की सम्भावना है, यह आत्मविराधना है तथा त्रसस्थावर जीवों की हिंसा भी हो सकती है, यह संयमविराधना है / 12 संकमेण : जिसके सहारे से जल या गड्ढे को पार किया जाए ऐसा काष्ठ या पाषाण का हमा संक्रम या जल, गड्ड आदि को पार करने के लिए काष्ठ आदि से बांधा हा मार्ग या कच्चा पुल। अपवादसूत्र-दूसरा कोई मार्ग न हो तो साधु इस प्रकार के विषम मार्ग से भी जा सकता है, यह अपवादसूत्र है। किन्तु ऐसे विषम मार्गों को पार करने में यतनापूर्वक गमन करने की सूचना है। पृथ्वी, जल, वायु और तिर्यञ्च जीवों की विराधना से बचने का निर्देश-सचित्त रज से भरे हुए पैरों से कोयले, राख, तुष, गोबर आदि पर चलने से उन सचित्त पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना होगी / वर्षा, बरस रही हो और कोहरा पड़ रहा हो, उस समय चलने से अप्कायिक जीवों की विराधना होगी। प्रबल अन्धड़ या आंधी चल रही हो, उस समय चलने से वायुकायिक जीवों की विराधना के साथ-साथ उड़ती हुई सचित्त रज शरीर के टकराने से पृथ्वीकाय की तथा रास्ता न दीखने से अन्य जीवों की तथा अपनी विराधना भी हो सकती है। तिर्यक् संपातिम (तिरछे उड़ने वाले 11. (क) बीयगहणेणं बीयपज्जवसाणस्स दसभेदभिण्णस्स वणफ्फइकायस्स गहणं कयं / -जि. च., पृ. 168 (ख) हरियगहणेण जे बोयरहा ते भणिता। -अ. चू., पृ. 99 (ग) प्राणिनो द्वीन्द्रियादीन् / -हा. टी., प. 168 (घ) उदकप्रधाना मृत्तिका : उदकमृत्तिका। -अावश्यक चूणि, वृ. 112 / 42 (ङ) दगग्गहणेण प्राउक्कामो सभेदो गहिरो, मट्टिया गहणेणं जो पुढविक्कामो अडवीमो प्राणियो, सन्निवेसे वा गामे वा तस्स गण् / जि. चू., पृ. 169 (च) दगमृत्तिका चिक्खलं / -आव. हारि. वृ., पृ. 573 12. (क) हारि. वृत्ति, पत्र 164 (ख) प्रात्मसंयमविराधनासंभवात्-हा. वृ., प. 164 13. (क) संकमिज्जति जेण संकमो, सो पाणियस्स वा गड्डाए वा भण्णइ। -जि. चू., पृ. 169 (ख) संक्रमेण जलगर्तापरिहाराय पाषाणकाष्ठरचितेन। -हारि. वृत्ति, पत्र 164 (ग) जम्हा एते दोसा तम्हा विज्जमाणे गमणपहे ण सपच्चवाएण पहेण संजएण सुसमाहिएण गंतब्बं / --जिन. चूणि, पृ. 169 (घ) “जति अग्णो मग्गो णत्थि ता तेणवि य पहेण मच्छेज्जा, जहा पाय-संजमविराहणा ण भबई।" -जिन. चूणि, पृ. 169 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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