________________ पंचम अध्ययन : पिण्डंषणा] [153 मत्तपाणं : भक्त-पान-भक्त के तीन अर्थ प्राममों में मिलते हैं—(१) भोजन, (2) भात और (3) बार। भ. महावीर के युग में तथा उसके पश्चात् शास्त्र लिपिबद्ध होने तक बंगाल-बिहार में जैनधर्म फैला, वहाँ भात (पका हुआ चावल) ही मुख्य खाद्य था, इसलिए शास्त्रों में यत्र-तत्र भत्तवाण' शब्द ही अधिक प्रयक्त हना है। परन्त बाद में टीकाकारों ने 'भत्त' का अर्थ भोजन किया है / अगत्स्यचूणि में कहा है-क्षुधापीडित जिसका सेवन करें वह भक्त है / पान का अर्थ है--जो पिया जाए। गवेषणा के लिए प्रथम किया : गमन-भिक्षाचरी के लिए प्रथम क्रिया गमन है। प्रस्तुत आठ गाथाओं में भिक्षार्थ गमन का उद्देश्य, भावना तथा गमन के समय चित्तवृत्ति कैसी हो? गमन में इन्द्रियों और मन को किस प्रकार रखें ? किस मार्ग से जाए किससे न जाए ? जीवों की यतना और रक्षा कैसे करे, कैसी परिस्थिति में भिक्षाचरी न करे ? प्रादि सभी पहलुओं से भिक्षाचर्यार्थ गमन की विधि बताई है। गोचराग्र : गोचर शब्द का अर्थ है--गाय की तरह चरना-भिक्षाचर्या करना / गाय शब्दादि विषयों में प्रासक्त न होती हुई तथा अच्छी-बुरी घास का भेद न करती हुई एक छोर से दूसरे छोर तक अपनी तृप्ति होने तक चरती चली जाती है, उसी प्रकार साधु-साध्वी का भी शब्दादि विषयों में आसक्त न होकर तथा उच्च-नीच-मध्यम कुल का भेदभाव न करते हुए तथा प्रिय-अप्रिय आहार में राग-द्वेष न करते हुए सामुदानिकरूप से भिक्षाटन करना गोचर कहलाता है। गोचर के आगे जो 'अग्र' शब्द का प्रयोग किया गया है, वह प्रधान या 'आगे बढ़ा हुआ' अर्थ का द्योतक है / गाय के चरने में शुद्धाशुद्ध का विवेक नहीं होता, जबकि साधु-साध्वी गवेषणा करके सदोष आहार को छोड़कर निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं। इसलिए उनकी भिक्षाचर्या गोचर से आगे बढ़ी हुई होने के कारण तथा चरक परिव्राजकादि के गोचर से श्रमनिर्ग्रन्थ का गोचर कुछ विशिष्ट होता है, इसलिए इसे 'गोचराग्र' कहा गया है / अध्याक्षिप्त चित्त से : चार अर्थ--(१) प्रार्तध्यान से रहित अन्तःकरण से, (2) पैर उठाने में उपयोग-युक्त होकर, (3) अव्यय-चित्त से, अथवा बछड़े और वणिकपुत्रवधू के दृष्टान्तानुसार शब्दादि विषयों में चित्त को नियोजित या व्यग्र न करते हुए और (4) एषणासमिति से युक्त हो कर / तात्पर्य यह है कि भिक्षार्थ गमन करते समय साधु की चित्तवृत्ति केवल पाहारगवेषणा में एकाग्न हो, 5. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 197 (ख) 'भत्तपाणं'–भजति खुहिया तमिति भत्तं, पीयत इति पाणं, भत्तपाणमिति समासो / -अगस्त्य चूर्णि, पृ. 99 6. (क) “गोरिव चरणं गोचर:-उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनम्। -हरि. वृत्ति, पत्र 153 (ख) गोरिव चरणं गोयरो, जहा गावीग्रो सद्दादिसु विसएसु असज्जमाणीग्रो आहारमाहारेति / -जि. च., पृ. 167 7. (क) गौश्चरत्येवमविशेषेण साधुनाऽप्यटितव्यम्, न विभवमंगीकृत्योत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विति, वणिग् वत्सक दृष्टान्तेन वेति। -हारि. वृत्ति., पत्र 18 (ख) “गोयरं अम्गं, गोतरस्स वा अग्गं गतो, अग्गं पहाणं / कहं पहाणं ? एसणादि-गुणजुतं, ण उ चरगादीण अपरिक्खित्तेसणाणं / " -अगस्त्य चूणि, पृ. 99 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org