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________________ 144] [दशवकालिकसूत्र सुख और साता में अन्तर-(१) जिनदास महत्तर के अनुसार सुख का अर्थ है--अप्राप्त भोग और साता का अर्थ है-प्राप्त भोग / अगस्त्यचूणि के अनुसार दोनों एकार्थक हैं / निगामसाइस्स : निकामशायी : तीन अर्थ-(१) जिनदास के अनुसार प्रकामशायी-अतिशय सोनेवाला, (2) हरिभद्र के अनुसार-शयनवेला का अतिक्रमण करके सोनेवाला अथवा अत्यन्त निद्राशील / (3) अगस्त्यसिंह के अनुसार-कोमल संस्तारक (बिस्तर) बिछाकर सोनेवाला / ' 32 __उच्छोलणापहोइस्स-(१) प्रचुर जल से बार-बार अयतनापूर्वक हाथ-पैर आदि धोनेवाला, (2) प्रभूत जल से भाजनादि को धोनेवाला / '33 सुगतिसुलभता के योग्य पांच गुण-(१)तपोगुणप्रधान-जिसमें तपस्या का मुख्य गुण हो / अर्थात्-जो समय आने पर यथालाभसंतोष या अप्राप्ति में भी संतोष करके तपश्चरण के लिए शान्तिपूर्वक उद्यत रहता हो / (2) ऋजुमतिः जिसकी मति सरल हो, जो मायी-कपटी न हो, निश्छल हो या जिसकी बुद्धि ऋजु-मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो। (3) क्षान्तिपरायण–क्षान्ति के दो अर्थ होते हैं-क्षमा और सहिष्णता-तितिक्षा / ये दोनों गुण जिसमें होंगे, उसका कषाय मन्द होगा. सहनशक्ति विकसित होने के कारण वह रत्नत्रय की साधना उत्साहपूर्वक करेगा। (4) संयमरत१७ प्रकार के संयम में लीन और (5) परीषहविजयी-धर्मपालन के लिए मोक्षमार्ग से च्युत न होकर समभावपूर्वक निर्जरा के हेतु से कष्ट सहन करना परीषह है / इसके क्षुधा, पिपासा आदि 22 प्रकार हैं / " सुगति-दो अर्थों में-सुगति शब्द यहाँ दोनों अर्थों में प्रयुक्त है-(१) सिद्धिगति (मोक्ष) अथवा (2) मनुष्य-देवगति / '35 / पिछली अवस्था में भी प्रश्नजित को सुगति-यदि कोई व्यक्ति वृद्धावस्था के कारण यह कहे कि मैं अब भागवती दीक्षा के योग्य नहीं रहा, उसके प्रति शास्त्रकार का कथन है कि जिन्हें तप, संयम, क्षान्ति और ब्रह्मचर्य आदि से प्रेम है वे वृद्धावस्था में चारित्रधर्म अंगीकार करने पर भी शीघ्र ही देवलोक (सुगति) प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि मोक्षप्राप्ति का साक्षात्कारण चारित्र है, तथापि पिछली अवस्था में शक्तिक्षीणता के कारण कदाचित् शरीर से चारित्र पालन में कुछ 132. (क) निगाम नाम पगाम "सूयतीति निगामसायो। -जि. च., 164 (ख) सूत्रार्थवेलामुल्लंघ्य शायिनः। --हारि. वृत्ति, पत्र 160 (ग) सुपच्छण्णे मउए सुइतु सोलमस्स निकामसाती। -अ. चू., पृ. 96 133. (क) उच्छोलणापहावी णाम जो पभूगोदगेण हत्थपायादी अभिक्खणं पक्खालइ / अहवा भायणाणि पभूतेण पाणिएण पक्खालयमाणो उच्छोलणापहोवी। —जिनदास चूणि, पृ. 164 134. (क) दशव. (प्राचार्य श्री आत्माराम जी म.) पृ. 138 (ख) उज्जुया मती उज्जुमती अमाती। -अ. चू., पृ. 97 (ग) ऋजूमते:-मार्गप्रवत्तबूद्ध: -हा. टी., पत्र 160 (घ) परीसहा-दिगिछादि बावीसं ते अहियासंतस्स / -जि. च., पृ. 164 135. सुगति = मोक्ष / ज्ञान और क्रिया द्वारा ही सुगति-मोक्षगति / -दशवै. (प्रा. प्रात्मा.) पृ. 1371138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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