________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [145 मन्दता हो, परन्तु मन में लगन, उत्साह और तीव्रता हो तो मोक्षप्राप्ति नहीं तो कम से कम स्वर्गप्राप्ति तो हो ही जाएगी, यह इस गाथा का प्राशय प्रतीत होता है 136 षड्जीवनिकाय-विराधना न करने का उपदेश 82. इच्चेयं छज्जीवणियं सम्मट्ठिी सया जए। दुल्लह लभित्तु सामण्णं कम्मुणा ण विराहेज्जासि // 51 // –त्ति बेमि चउत्थं छज्जीवणियऽज्मयणं समत्तं // 4 // [82] इस प्रकार दुर्लभ श्रमणत्व को पाकर सम्यक दृष्टि और सदा यतनाशील (अथवा जागरूक) साधु या साध्वी इस षड्जीवनिका की कर्मणा (अर्थात्--मन, वचन और काया की क्रिया से) विराधना न करे / / 5 / / --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-उपदेशात्मक उपसंहार-प्रस्तुत अध्ययन के उपसंहार में जो षड्जीवनिका की विराधना न करने का उपदेश दिया. गया है, वह पुत्र को परदेश या विदेश विदा करते समय माता या पिता के द्वारा दिये गए उपदेश के समान महान् हितैषी सद्गुरु का शिष्य को दिया गया उपदेश है / इसका प्राशय यह है कि यद्यपि मनुष्यत्व दुर्लभ है, किन्तु तुम्हें तो मनुष्यत्व धर्मश्रवण और श्रद्धा के पश्चात् संयम में पराक्रम करने वाले श्रमण का पद मिला है, तुम श्रमणत्व के अधिकारी बने हो, अतः हे शिष्य ! सम्यक् दृष्टिपूर्वक, सतत अप्रमत्त (जागरूक) रह कर इस अध्ययन में प्रतिपादित जीवादि के सम्यक् ज्ञान एवं उनके प्रति सम्यक् श्रद्धा रखकर पंचमहाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, षड्जीवनिकाय विराधना से विरति, एवं प्रत्येक क्रिया में यतनाशील रह कर आत्मा के विकासक्रम के अनुसार मन-वचन काया से ऐसा कार्य करना, जिससे इनकी विराधना न हो। अर्थात् इनमें स्खलना या खण्डना न हो। ___ कम्मुणा न विराहेज्जासि-कम्मुणा-कर्मणा के तीन अर्थ-(१) मन, वचन, काया की क्रिया से, (2) षड्जीवनिकाय के अध्ययन में जैसा उपदेश दिया गया है, उसके अनुसार विराधना न करे, (3) षट्जीवनिकाय के जीवों की कर्म से अर्थात् दुःख पहुंचाने से लेकर प्राणहरण तक की क्रिया से विराधना न करे। 37 // चतुर्थ : षड्जीवनिका अध्ययन समाप्त // -- -- ....- . - ---.-. ..--- 136. दशवकालिकसूत्रम् (प्राचार्य प्रात्मारामजी म.), पृ. 139 137. (क) कर्मणा-मनोवाक्कायक्रियया। --हा. टी., प. 160 / / (ख) कम्मुणा-छज्जीवणियाजीवोवरोहकारकेण। --अ. चू., पृ. 97 (ग) कम्मुणा नाम जहोवएसो भण्णइ, ते छज्जीवणियं जहोवइळं तेण णो विराहेज्जा। -जि. चु., 164 (घ) न विराधयेत् न खण्डयेत् / -हारि. वृत्ति, पत्र 160 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org