________________ चतुर्थ अध्ययन :बड़जीवनिका] [143 81. तवोगुणपहाणस्स उज्जुमइ-खंति-संजमरयस्स / परीसहे जिणंतस्स सुलहा सोग्गइ तारिसगस्स // 50 // [पच्छावि ते पयाया, खिप्पं गच्छति अमरभवणाई। जेसि पिओ तवो संजमो य, खंती य बंभचेरं च // ] [80] जो श्रमण सुख का रसिक (प्रास्वादी) है, साता के लिए प्राकुल रहता है, अत्यन्त सोने वाला (निकाम-शायी) है, प्रचुर जल से बार-बार हाथ-पैर आदि को धोने वाला होता है, ऐसे श्रमण को सुगति दुर्लभ है / / 46 / / [81] जो श्रमण तपोगुण में प्रधान है, ऋजुमति (सरलमति) है, शान्ति एवं संयम में रत है, तथा परीषहों को जीतने वाला है; ऐसे श्रमण को सुगति सुलभ है / / 50 / / [भले ही वे पिछली वय (वृद्धावस्था) में प्रजित हुए हों किन्तु जिन्हें तप, संयम, क्षान्ति (क्षमा या सहनशीलता) एवं ब्रह्मचर्य प्रिय है, वे शीघ्र ही देवभवनों (देवलोकों में जाते हैं // ] विवेचन-सुगति किसको दुर्लभ ?-प्रस्तुत गाथा सूत्र (80) में सुगति के लिए अयोग्य श्रमण की विवेचना की गई है। ऐसे चार दुर्गुण जिस साधु या साध्वी में होते हैं, वे अहिंसा, एषणासमिति, पादाननिक्षेपसमिति, उच्चारप्रस्रवणादि परिष्ठापनासमिति तथा तीन गुप्ति आदि के पालन में शिथिल हो जाते हैं। फलतः आगे चल कर उनके ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों में, दशविध श्रमणधर्म में दोष लगने की संभावना है। वे संयम और तप में बहुत कच्चे हो जाते हैं / सुख-सुविधाभोगी होने के कारण संभव है, वे साधुजीवन के मौलिक नियमों को भी ताक में रख दें। इसलिए उनके चारित्रधर्म के पालन में शैथिल्य के कारण सुगति दुर्लभ बताई है। सुहसायगस्स : सुख-स्वादक : तीन अर्थ-(१) अगस्त्यचणि के अनुसार-सुख का स्वाद लेने (चखने) वाला / (2) जिनदास के अनुसार--जो सुख की कामना या प्रार्थना करता है। (3) हरिभद्रसूरि के अनुसार प्राप्त सुख को आसक्तिपूर्वक भोगने वाला, वास्तव में जो सुखसुविधाओं का रसिक है, वही सुखस्वादक है। ___ सायाउलगस्स : साताकुल : सुख प्राप्ति के लिए व्याकुल (बेचैन) या भावी सुख के लिए व्याक्षिप्त-व्यग्न / कोष्ठक के अन्तर्गत इस गाथा की व्याख्या चणिद्वय, तथा हारिभद्रीय वृत्ति में भी नहीं की गई है, इसलिए यह गाथा प्रक्षिप्त प्रतीत होती है किन्तु सभी सूत्रप्रतियों में उपलब्ध है। -सं. 131. (क) सुहसातगस्स-तदा सुखं स्वादयति चक्खति। -प्र. च., प्र. 96 (ख) सायतिणाम पत्थयति''''कामयति / –जि. चू., पृ. 163 (ग) सुखास्वादकस्य-अभिष्वं गेण प्राप्तसुखभोक्तुः। —हा. बृ., पत्र 160 (घ) साताकुलस्स-तेणेव सुहेण पाउलस्स / अ. चू., पृ. 96 (ङ) साताकुलस्य भाविसुखार्थ व्याक्षिप्तस्य / -हारि. वृत्ति, पत्र 160 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org