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________________ 142] [वशवकालिकसूत्र जब केवली भगवान् शैलेशी-अवस्था को प्राप्त करके सर्वथा अयोगी हो जाते हैं, तब उनके अघातोचतुष्टय का भी सर्वथा क्षय हो जाता है। ऐसी स्थिति में वे सर्वथा नीरज अर्थात् कर्मरज से सर्वथा रहित हो जाते हैं और मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं / सिद्धिगति में पहुँचने के पश्चात् वे लोक के मस्तक पर अर्थात्-ऊर्ध्वलोक के छोर-अग्रभाग पर जाकर प्रतिष्ठित हो जाते हैं और शाश्वत सिद्ध (विदेहमुक्त) हो जाते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में मुक्त (सिद्ध) जीवों के सम्बन्ध में पूछे गये प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार दिया गया है कि-"सिद्ध अलोक से प्रतिहत हैं, लोकाग्र में प्रतिष्ठित हैं, यहाँ (मनुष्य लोक में) वे शरीर छोड़ देते हैं और वहाँ (लोकान में) जाकर सिद्ध होते हैं।" ___ सिद्ध भगवान् को शाश्वत इसलिए कहा गया है कि वे सिद्ध होने के पश्चात् पुनः संसार में आकर जन्म धारण नहीं करते, क्योंकि उन्होंने संसार में जन्म-मरण के कारणभूत कर्मबीजों को सर्वथा दग्ध कर दिया है। जैसे बीज के रहने पर ही उसमें अंकुर उत्पन्न होने की संभावना रहती है, जब बीज ही नष्ट हो जाए तो अंकुर के उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः सिद्धात्मा को मुक्त होने के पश्चात् संसार में लौट कर पाने और जन्म धारण करने की भ्रान्त मान्यता का निराकरण करने हेतु शाश्वत पद दिया गया है। 30 इस प्रकार प्रात्मा की क्रमिक शुद्धि द्वारा उत्तरोत्तर विकास होते-होते विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने का क्रम इन गाथाओं में अंकित है। सुगति को दुर्लभता और सुलभता 80. सुहसायगस्स समणस्स सायाउलगस्स निगामसाइस्स। उच्छोलणापहोइस्स* दुल्लहा सोग्गइ+ तारिसगस्स // 49 // (ख) “सेलेसि पडिवज्जइ भवधारणिज्जकम्मक्खयट्ठाए / " -जि. चू., पृ. 163 (ग) उचितसमयेन योगान्निरुद्धय मनोयोगादीन शैलेशी प्रतिपद्यते भवोपग्राहिक-कशिक्षयाय / -हारि. वृत्ति, पत्र 159 (घ) दसवेवालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 171 (ङ) दशवै. (प्राचार्य प्रात्मारामजी म.), पृ. 133 130. (क) 'कर्म क्षपयित्वा भवोपग्राह्यपि 'सिद्धि' गच्छति लोकान्तक्षेत्ररूपां, नीरजा: सकलकर्मरजोनिमुक्तः / -हारि. वृत्ति., पत्र 159 (ख) 'भवधारणिज्जाणि कम्माणि खवेउं सिद्धि गच्छइ, कहं ? जेण सो नीरो, नीरो नाम अवगत रो नीरो।' --जिन. चूणि., पृ. 163 (ग) लोगमत्थगे--लोगसिरसि ठितो सिद्धो कतत्थो सासतो सव्वकालं तहा भवति / -अगस्त्य च., पृ. 96 (घ) त्रैलोक्योपरिवर्ती सिद्धो भवति, 'शाश्वत:'-कर्मबीजाभावादनुत्पत्तिधर्म इति भावः / हारि. वृत्ति, पत्र 159 (ड) दश. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 135 (च) अलोए पडिहया सिद्धा, लोयम्गे य पइट्ठिया / इह बोंदि चइत्ताणं, तत्थ गंतुण सिज्झइ // -उत्तरा. 33156 * पाठान्तर-""पहोअस्स + सुगई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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