________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [141 विध तपश्चरण रूप अनुत्तर चारित्रधर्म के उत्कृष्ट पालन से वह साधक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मों का क्षय (ध्वंस) कर देता है। आत्मा पर लगी हुई घातिकर्मरूपी रज के दूर होते ही केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट हो जाते हैं। उस स्थिति में आत्मा में सर्वव्यापी अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन प्रकट हो जाते हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शन को सर्वत्रग (सर्वव्यापी) इस दृष्टि से कहा गया है कि इनके द्वारा सभी विषय जाने-देखे जा सकते हैं। नैयायिक आदि दर्शनों की तरह जैनदर्शन आत्मा को क्षेत्र की दृष्टि से सर्वव्यापी नहीं मानता, वह आत्मा के निजी गुण-ज्ञान की अपेक्षा (केवलज्ञान के विषय को दृष्टि से) सर्वव्यापी मानता है / ' 26 सर्वव्यापी ज्ञान-दर्शन के प्राप्त होते ही वह आत्मा केवलज्ञानी और जिन (रागद्वेषविजेता) बन जाता है, और अपने केवलज्ञान के आलोक में लोक और अलोक को जानने-देखने लगता है / 127 अर्थात् केबलज्ञान के प्रकाश में लोकालोक को हाथ पर रखे हुए आँवले की तरह जानता देखता है / ' 28 शैलेशी अवस्था, नीरजस्कता एवं सिद्धि : कारण और स्वरूप-शैलेशी का अर्थ है- मेरु / जो अवस्था मेरुपर्वत की तरह अडोल-निष्कम्प होती है, उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं। शैलेशी अवस्था में आत्मा सर्वथा निष्कम्प हो जाती है / प्रस्तुत गाथा में-शैलेशी (निष्कम्प) अवस्था का कारण बताया गया है-योगों का निरोध / आत्मा स्वभाव से निष्कम्प ही है, किन्तु योगों के कारण इसमें कम्पन होता रहता है। प्रात्मप्रदेशों में यह गति, स्पन्दन या कम्पन आत्मा और शरीर के संयोग से उत्पन्न होता है, उसे ही योग कहते हैं। योग अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति या हलचल / इन तीनों योगों की प्रवृत्ति जब शुभ कार्य में होती है, तब व्यक्ति शुभास्त्रव है और अशुभ कार्यों में प्रवत्ति होती है, तब अशुभास्त्रव करता है। परन्तु अरिहन्त केवली भगवान के जब तक आयुष्य होता है, तब तक शुभ प्रवृत्ति ही संभव है, जिसके फलस्वरूप पुण्य बन्ध (मात्र साता. वेदनीय) होता है। अरिहन्त केवली में चार अघातीकर्म (वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्रकर्म) शेष रहते हैं, उनका भी क्षय करने के लिए योगनिरोध करते हैं। योगों का सर्वथा निरोध तद्भवमोक्षगामी जीव के अन्तकाल में होता है। पहले मन का, उसके पश्चात् वचन का और अन्त में शरीर का योग निरुद्ध होता है / 126 और प्रात्मा शैलेशी-अवस्थापन्न होकर सर्वथा निष्कम्प बन जाती है। 126. (क) दशवं. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 131 (ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी) पृ. 171 (ग) 'सव्वत्थ गच्छतीति सम्बत्तगं केवलनाणं केवलदसणं च / ' -अ. चू., पृ. 95 (घ) सर्वत्रगं ज्ञानं-अशेषज्ञेयविषयं, 'दर्शन' च-अशेषश्यविषयम् / हा. वृ., प. 159 127. दशवे. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी) पृ. 131 128. लोक चतुर्दशरज्ज्वात्मक, अलोकं च अनन्तं, जिनो जानाति केवली / लोकालोको च सर्व नान्यतरमेवेत्यर्थः / -हारि. वत्ति, पत्र 159 129. (क) 'तदा जोगे निरु भित्ता' भवधारणिज्जकम्मविसारणत्थं सीलस्स ईसति-वसयति सेलेसि / त्ततो से लेसिप्पभावेण तदा कम्म-भवधारणिज्ज कम्म सेस खवित्ताणं सिद्धि गच्छति णीरतो-निकम्ममलो। -अगस्त्य चर्णि, पृ. 96 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org