________________ 140] दशवकालिकसूत्र में प्रवजित हो जाता है / जिसके अगार अर्थात् अपने स्वामित्व का कोई गृह नहीं होता, वह अनगार कहलाता है / अनगारिता अर्थात्-अनगारवृत्ति या अनगारधर्म अथवा गृहरहित अवस्था- साधुता / 123 उत्कृष्ट संवररूप अनुत्तर धर्म क्या और कौन-सा?—प्राणातिपात प्रादि प्रास्रव-( कों के आगमन-) द्वार का भलीभांति रुक जाना संवर धर्म है। यों तो संवर गृहस्थावस्था में भी किया जा सकता है, किन्तु वहाँ एकदेशरूप (अणुव्रतरूप) संवर ही धारण किया जा सकता है, जबकि यहाँ उत्कृष्ट संवर धारण करने की बात कही है वह सर्वविरतिरूप (महाव्रतरूप) संवर की अपेक्षा से कही है / इस दृष्टि से संवर के दो प्रकार होते हैं-देशसंवर और सर्वसंवर / देशसंवर में प्रास्रवों का आंशिक निरोध होता है, जबकि सर्वसंवर में उनका पूर्ण निरोध होता है। यहाँ देशसंवर की अपेक्षा सर्वसंवर को उत्कृष्ट कहा है। सर्वसंवर अंगीकार करने का अर्थ है सकल चारित्रधर्म को अंगीकार करना। महाव्रतरूप पूर्ण चारित्र धर्म से बढ़कर कोई धर्म नहीं है, इसीलिए इसे अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) धर्म कहा है। भावार्थ यह है कि समस्त विषयभोग, बाह्याभ्यन्तरग्रन्थि और गृहवास को छोड़ कर जब साधक द्रव्य-भाव से मुण्डित होकर अनगारधर्म को अंगीकार करता है, तब सहज ही महाव्रतरूप उत्कृष्ट सर्वश्रेष्ठ संवरधर्म का स्पर्श प्रासेवन (पालन) करता है / ऐसी स्थिति में उसके समस्त पापास्रवों का पूर्ण निरोध (संवर) हो जाता है। चूर्णिकारों के मतानुसार उत्कृष्ट संवर को जो अनुत्तर धर्म कहा है, वह परमतों की अपेक्षा से कहा है / 124 अबोधिकलषकृत कर्मरज-ध्वंस का कारण और उसका परिणाम-प्रात्मा अपने आप में शुद्ध है, किन्तु कर्मों के प्रावरण के कारण वह कलुषित-अशुद्ध हो रही है। जब साधक उत्कृष्टसंवररूप अनुत्तर धर्म का पालन करता है तो एक ओर से वह नवीन कर्मों (आस्रवों) का सर्वथा निरोध कर देता है, दूसरी ओर से '25 पूर्व में किये हुए कर्मरज को झाड़ देता है, या ध्वंस कर डालता है। अथवा अबोधि-अज्ञान के कारण जो कलुष-पाप किया है, उससे अर्जित कर्म रज को वह धुन डालता है / तात्पर्य यह है कि महाव्रत, समिति, गुप्ति, परीषहजय, दशविध श्रमणधर्म, अनुप्रेक्षा एवं द्वादश 123. (क) मुडे इंदिय-विसय-केसावणयणेण मुडो। -अगस्त्यचूणि, पृ 95 (ख) स्थानांग स्था. 1099 (ग) अगारं-घरं, तं जस्स नत्थि सो अणगारो। तस्स भावो अणगारिता तं पवज्जति। -अ. चू., पृ. 95 124. (क) संवरो नाम पाणवहादीण पासवाणं निरोहो भण्णइ / देससंवरायो सव्वसंवरो उक्किठो / तेण सम्व संबरेण संपुण्णं चरित्तधम्म फासेइ। अणुत्तरं नाम न ताओ धम्मायो अण्णो उत्तरोत्तरो अत्थि / ." उक्किट्ठग्गहणं देसविरइपडिसेहणत्थं कयं / अणुत्तरगहणं एसेव एक्को जिणप्पणीप्रो धम्मो अणुत्तरो, ण परवादिमताणित्ति / -जि. चू., पृ. 163 (ख) उत्कृष्टसंवरं धर्म-सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपं चारित्रधर्ममित्यर्थः। स्पृशत्यानुत्तरंसम्यगासेवत इत्यर्थः / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 159 125. (क) धुणति-विद्धसयति, कम्ममेव रतो कम्मरतो।"प्रबोहि-अण्णाणं, अबोहिकलुसेण कडं, अबोहिणा, वा कलुसं कतं / --अग. चू.. पृ. 95 (ख) धुनोति अनेकार्थत्वात पातयति 'कर्म रजः'-कर्मैव प्रात्मरंजनाद्रज इव रजः, अबोधिकरलूपेण-मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः / —हा. टी. 159 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org