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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [139 देव-मनुष्यसम्बन्धी भोगों से ऐसे साधक को सहज ही विरक्ति हो जाती है / 120 यहाँ ज्ञान का सार चारित्र बतलाया गया है / निविदए : दो रूप : दो अर्थ (1) निर्विन्द-निश्चयपूर्वक जानना, सम्यक विचार करना। (2) निर्वेद-घृणा करना, विरक्त होना, असारता का अनुभव करना।'' बाह्य-प्राभ्यन्तर संयोग क्या, उनका परित्याग कैसे ?--संयोग का अर्थ यहाँ केवल सम्बन्ध नहीं है, किन्तु प्रासक्ति या मोह से संसक्त सम्बन्ध, अथवा मू भाव या ग्रन्थि है। स्वर्ण आदि का संयोग या माता-पिता आदि का संयोग बाह्य संयोग है और क्रोधादि का संयोग आभ्यन्तर संयोग है / इन्हें ही क्रमशः द्रव्यसंयोग और भावसंयोग कहा जा सकता है / भोगों से जब मनुष्य को अन्तर से वैराग्य हो जाता है तो भोगों के साधनों या भोगभावोत्पत्ति के कारणों से ममता-मूर्छा सहज ही हट जातो है, संयोगों का त्याग सहज ही हो जाता है। क्योंकि तब अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि ये संयोग ही जीव को बन्धन में डाले हए हैं, और मेरे लिए अनेक दःखों के कारण बने ह संयोग भी दो प्रकार के होते हैं—प्रशस्त और अप्रशस्त / इनमें से वह अप्रशस्त संयोगों को छोड़ता है, किन्तु देव, गुरु, धर्मसंघ, साधुवेष, धर्मोपकरण आदि प्रशस्त संयोगों को अमुक मर्यादा तक ग्रहण करता है।२२ मुण्ड और अनगारित्व-स्वीकार : विशेषार्थ-मुण्डन दो प्रकार का होता है-द्रव्यमुण्डन और भावमुण्डन / केशलुञ्चन आदि करना द्रव्यमुण्डन है, और पञ्चेन्द्रियनिग्रह एवं कषायविजय भावमुण्डन है / प्रथम मुण्डन शारीरिक है, दूसरा मानसिक है। दोनों प्रकार से जो मुण्डित हो जाता है, वह 'मुण्ड' कहलाता है / स्थानांगसूत्र में 10 प्रकार के मुण्ड बतलाए हैं-(१) क्रोधमुण्ड, (2) मानमुण्ड, (3) मायामुण्ड, (4) लोभमुण्ड, (5) शिरोमुण्ड, (6) श्रोत्रेन्द्रियमुण्ड, (7) चक्षुरिन्द्रियमुण्ड, (8) घ्राणेन्द्रियमुण्ड, (6) रसनेन्द्रियमुण्ड और (10) स्पर्शनेन्द्रिय-मुण्ड / वास्तव में जब तक बाह्याभ्यन्तरसंयोग बना रहता है, तब तक मोक्षपद की साक्षात्साधिका साधुवत्ति ग्रहण नहीं कर पाता। परन्तु ज्यों ही मनुष्य समस्त भोगों से, भोगाकांक्षा से सर्वथा विरक्त हो जाता है और बाह्याभ्यन्तर संयोगों का त्याग कर देता है, त्यों ही उसकी अभिलाषा गृहस्थवास में रहने की या गृहस्थाश्रम का दायित्व वहन करने की नहीं रहती। वह सब से मुख मोड़ कर द्रव्य-भाव से मुण्डित होकर अनगारधर्म 120. हारि. वृत्ति., पत्र. 157 121. "णिच्छियं विंदतीति णिबिदति, विविहमणेगप्पगारं वा विदइ निविदइ, जहा एते किपागफलसमाणा दुरंता भोग त्ति। ---जि. चू., पृ. 162 122. (क) संयोग--सम्बन्धं द्रव्यतो भावतश्च साभ्यन्तरबाह्य क्रोधादि-हिरण्यादि-सम्बन्धमित्यर्थः / - हारि. वृत्ति., पत्र 159 (ख) "बाहिरं अब्भंतरं च गंथं / " -जि. चू., 162 (म) दशव. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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