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________________ [वशवकालिकसूत्र [76] जब साधक सर्वत्रगामी ज्ञान और दर्शन को प्राप्त कर लेता है, तब वह जिन और केवली हो कर लोक और अलोक को जान लेता है // 45 / / [77] जब साधक जिन और केवली हो कर लोक-अलोक को जान लेता है; तब योगों का निरोध करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है // 46 // [78] जब साधक योगों का निरोध कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तब वह (अपने समस्त) कर्मों का (सर्वथा) क्षय करके रज-मुक्त बन, सिद्धि को प्राप्त कर लेता है / / 47 / / [76] जब (साधक समस्त) कर्मों का (सर्वथा) क्षय करके रज-मुक्त हो कर सिद्धि को प्राप्त कर लेता है, तब वह लोक के मस्तक पर स्थित हो कर शाश्वत सिद्ध हो जाता है // 48 // विवेचन-पुण्य-पापादि के ज्ञान से शाश्वत सिद्धत्व तक-प्रस्तुत 10 गाथाओं (36 से 48 तक) में पुण्य-पाप, बंध और मोक्ष के ज्ञान से लेकर शाश्वत सिद्धत्व-प्राप्ति तक का आत्मा के विकासक्रम का दिग्दर्शन हेतुहेतुमद्भाव के रूप में दिया गया है / आत्मा का विकासक्रम 1. जीव और अजीव का विशेष ज्ञान / 2. सर्वजीवों की बहुविध गतियों का ज्ञान / 3. पुण्य-पाप तथा बन्ध-मोक्ष का ज्ञान / 4. दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्ति / 5. बाह्य और पाभ्यन्तर संयोगों का परित्याग / 6. मुण्डित हो कर अनगारधर्म में प्रव्रज्या / 7. उत्कृष्ट संवररूप अनत्तरधर्म का स्पर्श / 8. अबोधि-कृत कर्मों की निर्जरा / 9. केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति / 10. जिनत्व, सर्वज्ञता एवं लोकालोकज्ञता की प्राप्ति / 11. योगों का निरोध और शैलेशी अवस्था की प्राप्ति / 12. सर्वकर्मक्षय करके कर्ममुक्त होकर सिद्धिप्राप्ति / 13. लोकाग्र में स्थित होकर शाश्वत सिद्धत्व-प्राप्ति / 16 दिव्य एवं मानवीय भोगों से विरक्ति-पुण्य-पाप, बन्ध और मोक्ष का ज्ञान होते ही आत्मा को दिव्य एवं मानवीय विषयभोग निःसार, क्षणिक एवं किम्पाकफल के समान दु:खरूप प्रतीत होने लगते हैं; क्योंकि सम्यग्ज्ञान से वस्तुस्थिति का बोध हो जाता है। इन तुच्छ भोगों के कटु परिणामों एवं चातुर्गतिक संसारपरिभ्रमण का दृश्य साकार-सा प्रतिभासित होने लगता है / इसलिए 119. (क) दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 17 (ख) दशवं. (प्रा. आत्मा.), पृ. 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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