________________ 124] [दश वैकालिकसूत्र आदि के लेने, रखने, बैठने, चलने-फिरने, सोने, भोजन करने आदि क्रियानों में असावधानी से, अविवेक से या प्रतिलेखन-प्रमार्जन न करने से इनकी विराधना होने की सम्भावना है। इसलिए यहाँ द्वीन्द्रियादि त्रसजीवों को एक या दो प्रतीकका नाम लेकर उपलक्षण से समस्त विकलेन्द्रियों का ग्रहण करने का संकेत किया गया है।' विराधना कहाँ-कहाँ और कैसे सम्भव ? -प्रस्तुत सूत्र के अनुसार पूर्वोक्त हाथ, पैर, भुजा, उरु, उदर, सिर आदि अंगोपांगों तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोञ्छन, रजोहरण, गोच्छक, दण्ड, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक तथा इसी प्रकार के अन्य (मुखवस्त्रिका, पुस्तक आदि) उपकरणों पर पूर्वोक्त द्वीन्द्रियादि सजीवों के चढ़ जाने पर विराधना होने की सम्भावना है।६२ उपकरण : परिग्रह एवं विशेषार्थ- प्रश्न हो सकता है कि साधु-साध्वी जब पंचम महाव्रत में परिग्रह का सर्वथा त्याग कर चुके होते हैं, तब उपकरणों का रखना कैसे विहित या संगत हो सकता है ? इसका समाधान यह है, कि शास्त्रों में उपकरणों का सर्वथा त्याग कहीं नहीं बताया / हाँ, उनकी मर्यादा अवश्य बताई है / जो भी उपकरणादि धर्मपालन या संयमपालन आदि के उद्देश्य से रखे जाते हैं, उन पर तनिक भी ममता-मृच्छा न रखी जाए तो वे परिग्रह की कोटि में नहीं पाते यह इसी शास्त्र में आगे बताया गया है। वस्तुत: उपकरण उसी को कहते हैं जिसके द्वारा ज्ञान-दर्शनचारित्र की पूर्णतया अाराधना की जा सके, जीवों की रक्षा एवं संयम-परिपालना की जा सके / 63 पूर्वोक्त त्रसजीवों की यतना के उपाय--पूर्वोक्त श्रसजीव यदि शरीर के किसी अंग या किसी उपकरण पर चढ़ जाएँ तो उनकी रक्षा साधू-साध्वी कैसे करें? यह 54 वें सत्र के उपसंहार में बताया गया है / इन शब्दों के विशेष अर्थ इस प्रकार हैं संजयामेव : दो अर्थ-(१) यतनापूर्वक, जिससे कि किसी कीट, पतंग आदि को पीड़ा न हो, (2) संयमपूर्वक, सावधानीपूर्वक उस जीव को लेकर जिससे कि उसे चोट न पहुँचे / पडिलेहियप्रतिलेखन करके, भलीभांति देखभाल कर / पमज्जिय-प्रमार्जन कर या पोंछ कर / एगंतमवणिज्जा-(वहां से हटा कर) एकान्त में, अर्थात्-ऐसे स्थान में जहाँ उसका उपघात न हो वहाँ, रख दे या पहुँचा दे / नो णं संघायमावज्जिज्जा-'उनको (किसी प्रकार का) संघात न पहुँचाए, यह इस पंक्ति का शब्दशः अर्थ है। भावार्थ यह है कि उपकरण आदि पर चढ़े हुए जीवों को परस्पर इस प्रकार से गात्र स्पर्श कर देना-भिड़ा देना कि उन्हें पीड़ा हो, वह संघात कहलाता है। संघात शब्द के आगे 'आदि' शब्द लुप्त होने से उस के अन्तर्गत परितापना, क्लामना, भयभीत करना, हैरान करना, उन्हें इकट्ठा करना, टकराना आदि सभी प्रकार की पीड़ाओं (धात) का ग्रहण हो जाता है / 91. दसवेयालियसुत्तं (मूल-पाठ-टिप्पण), पृ. 14 92. दशव. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 108 93. (क) वही, पृ. 108-109-110 (ख) अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे साधू क्रियोपयोगिनि उपकरणजाते / -हारि. बत्ति, पत्र 156 (ग) जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपूच्छणं, तं पि संजमलज्जा धारंति परिहरंति य। न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा, मुच्छा परिगहो वुत्तो, इइ वुत्त महेसिणा। -~-दशव. अ. 6, गा. 19-20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org