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________________ चतुर्य अध्ययन : षड्जीवनिका] [123 वायुकायिक विराधना के साधन-सित-श्वेत चामर / निशीथभाष्य में 'सिएण' के बदले 'सुप्पे' (शूर्प----सूपड़ा) का प्रयोग मिलता है। विधुवन-व्यजन या पंखा / तालवन्त–ताड़ पत्र का पंखा, जिसके बीच में पकड़ने के लिए छेद हो और जो दो पूट वाला हो / पत्र, शाखा, शाखाभंग आदि प्रसिद्ध हैं / पेहुण-मोर का पंख, मोरपिच्छ या वैसा ही दूसरा पिच्छ / पहुण-हस्त--जिसके हत्था बंधा हुमा हो ऐसा मोर को पांखों का गुच्छ या मोरपिच्छी अथवा गृद्धपिच्छी / चेलकण्ण---वस्त्र का पल्ला / बनस्पतिकायिक जीवों के प्रकार, विराधना और अर्थ-बीएसु-बीजों पर, बीयपइट्ठसुउपर्युक्त बोज वाली वनस्पति पर रखे हुए पदार्थों पर / रूढेसु : दो प्रर्थ-(१) अंकुर न निकला हो, ऐसे स्फुटित (भूमि फ़ोड़ कर बाहर निकले हुए) बीजों पर, अथवा (2) बीज फूट कर जो अंकुरित हुए हों, उन पर / रूढपइट्ठसु-स्फुटित बोजों पर रखे हुए पदार्थों पर | जाए : विशेषार्थ--(१) बद्धमूल बनस्पति, (2) स्तम्बीभूत वनस्पति, जो अंकुरित हो गई हो, जिसकी पत्तियाँ भूमि पर फैल गई हों। (3) अल्पवृद्धिगत घास / जायपइसुठेसु-जो उगकर पत्रादि युक्त हो गई हों, ऐसी जातवनस्पति पर रखे पदार्थों पर / छिन्नेसु-हवा के जोर से टूटे हुए या कुल्हाड़ी आदि से काट कर वृक्षादि से अलग किये हुए शस्त्र-अपरिणत शाखादि अंगों पर / छिन्नपइठेसु-कटी हुई आर्द्र वनस्पति पर रखे हुए पदार्थों पर / हरिएसु-हरी दूब या अन्य हरियाली पर / हरियपइट्ठसु-हरित पर रखी हुई वस्तुओं पर / सचित्तेसु-सजीव अण्डे आदि से संश्रित वनस्पति पर, सचित्तकोल-पडिनिस्सिएसु-सचित्त कोल अर्थात् धुण-काष्ठकोट अथवा दीमक के द्वारा आश्रय लिए हुए काष्ठ या वनस्पति विशेष पर. त्रसकायिक जीव विराधना से विरति में विकलेन्द्रिय का ही उल्लेख क्यों ?-..-प्रश्न होता है कि त्रसकाय के अन्तर्गत तो द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव हैं, फिर यहाँ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति के ही एक-एक दो-दो जीवों का उल्लेख त्रसकाय-विराधना से विरति के प्रसंग में क्यों किया गया? इसका समाधान यह है कि वैसे तो सभस्त त्रसकायिक जीवों की किसी भी प्रकार की विराधना हिंसा है और हिंसा का त्रिकरण-त्रियोग से त्याग प्रथम महाव्रत में आ ही जाता है, इसलिए यहाँ उल्लेख न किया जाता तो भी चलता, किन्तु यहाँ उन जीवों की विशेषरूप से रक्षा एवं यतना बताने के लिए यह पाठ दिया गया है / इस में चारों प्रकार के पंचेन्द्रिय जीवों की विराधना से विरति का उल्लेख इसलिए नहीं किया गया है कि ये जीव तो आँखों से दिखाई देते हैं, इनकी विराधना साधु-साध्वी अपनी आहार-विहारादि चर्या के समय कर ही नहीं सकते। किन्तु द्वीन्द्रियादि त्रसजीवों का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक था कि साधु-साध्वी के शरीर के अंगोपांग, उपकरण 81. (क) 'मितं चामरम् / ' हारि. वृत्ति, पत्र 154 / (ख) विधुवनं-व्यजनम् / ----वही, पत्र 154 (ग) 'तालवन्तं तदेव मध्यग्रहण छिद्रम् द्विपुटम् / (घ) पत्र-पद्भिजीपत्रादि / (2) शाखा-वक्षडाल, शाखाभंग-तदेकदेश: / —हारि. वृत्ति, पत्र 154 (च) 'पेहणं मोरपिच्छग वा, अण्णं किचि वा तारिस पिच्छं।" -जिनदासचणि, प. 156 (छ) पिहुणाहत्थो मोरिगकुच्चो , गिद्धपिच्छाणि वा एगो बद्धाणि। -जि. चू., पृ. 156 (ज) पेहुणहस्तः- तत्समूहः / " हारि. वृत्ति, पत्र 154 / (झ) चेलकर्णः-तदेकदेशः ।-वही, पत्र 154 90. अगस्त्यचूर्णि, पु. 90 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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