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________________ 110] [दशवकालिकसूत्र के प्रवाह में बह कर असत्य बोलता, लिखता या पाचरता है : किन्तु यह निश्चित समझना चाहिए कि असत्य के ये चार कारण तो उपलक्षणमात्र हैं। क्रोध के ग्रहण द्वारा मान (अहंकार, दर्प या गर्व अथवा मद) को भी ग्रहण कर लिया गया है / लोभ के ग्रहण से माया का भी ग्रहण हो जाता है / कपट, छल, धोखाधड़ी, झूठ-फरेब, पैशुन्य, मक्कारी, वंचना, ठगी, परनिन्दा आदि सब माया के दायरे में हैं। भय और हास्य के ग्रहण से राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान आदि का ग्रहण हो जाता है। इस तरह मृषावाद अनेक कारणों से बोला, लिखा तथा प्राचरित किया जाता है / यही बात अन्य पापों के सम्बन्ध में समझ लेनी चाहिए। द्रव्यादि की अपेक्षा से मषावाद- मृषावादविरमण महाव्रती को चार दृष्टियों से इसका विचार करना चाहिए-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः / द्रव्यदृष्टि से मृषावाद का विषय सर्वद्रव्य है, क्योंकि सजीव, निर्जीव सभी द्रव्यों के विषय में असत्य बोला जाता है। क्षेत्रदष्टि से मृषावाद का विषय लोक और अलोक दोनों हो सकते हैं। कालदृष्टि से इसका विषय दिन और रात (सर्वकाल) हैं / भावदृष्टि से --- मृषावाद के हेतु-क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि कई विकारभाव या विभाव हो सकते हैं। सर्वमषावादविरमण : सत्य महाव्रत के लिए-जब साधु-साध्वी प्रतिज्ञाबद्ध हों, तब मृषावाद के इन प्रकारों तथा चार प्रकार की भाषाओं (सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा, व्यवहारभाषा), 10 प्रकार के सत्य (जनपदसत्य आदि) एवं काया, भाषा तथा भावों की ऋजुता और अविसंवादी योग (मन-वचन-काया) इत्यादि का ध्यान रखते हुए पूर्ववत् मन वचन काया से, कृत-कारितअनुमोदित रूप से मृषावाद के यावज्जीव-प्रत्याख्यान के लिए गुरु के समक्ष विधिवत् प्रतिज्ञाबद्ध होना चाहिए। अदत्तावान : स्वरूप और विविधरूप-बिना दिया हुया लेने (चोरी, अपहरण, लूटपाट आदि) की बुद्धि से, दूसरे के स्वामित्व या अधिकार के या दूसरे के द्वारा परिगृहीत या अपरिगृहोत तण, काष्ठ आदि किसी भी द्रव्य या भाव (विचार) का ग्रहण करना. उसे अपने अधिकार या स्वामित्व में ले लेना अदत्तादान है / 65 इसका उग्ररूप चौर्य या चोरी डकैती लूट आदि है। सब प्रकार के अदत्तादान से विरत होने के लिए साध्वी या साधु प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं। उस समय अदत्तादान के विविध रूपों का ध्यान रखना आवश्यक है, यह मूलपाठ में बतलाया गया है-गाँव में, नगर में या अरण्य में, किसी भी जगह, किसी भी क्षेत्रविशेष में अदत्तादान नहीं करना चाहिए। अल्प या बहुत--अल्प के दो प्रकार हैं-(१) जो मूल्य की दृष्टि से अल्प मूल्य का पदार्थ हो, जैसे-एक कौड़ी। अथवा परिमाण की दृष्टि से अल्प हो, जैसे-एक एरण्डकाष्ठ / बहुत के दो प्रकार(१) जो मूल्य की दृष्टि से बहुमूल्य हो, जैसे-हीरा आदि / (2) अथवा परिमाण या संख्या की दृष्टि से बहुत परिमाण या संख्या की वस्तु हो। 63. "कोहम्गह्णण माणस्स वि गहणं कयं, लोभगहणेण माया गहिया, भय-हासगहणेण पेज्ज-दोस-कलह अब्भवखाणाइणो गहिया / " " —जिनदास चणि, पृ. 148 64. जिन. चूणि, पृ. 148 65. जिन. चूणि, पृ. 149 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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