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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [109 द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्राणातिपात का त्याग---इसके अतिरिक्त सर्वप्राणातिपातविरमण में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्राणातिपात का विचार करके उनसे विरत होना आवश्यक है / द्रव्यदृष्टि से प्राणातिपात का विषय षड्जीवनिकाय है, अर्थात्-हिंसा छह प्रकार (निकाय) के सूक्ष्म एवं बादर जीवों की होती है। क्षेत्रदृष्टि से प्राणातिपात का विषय समग्न लोक है, क्योंकि समग्र लोक में ही जीव हैं, अत: प्राणातिपात लोक में ही सम्भव है। काल की दृष्टि से प्राणातिपात का विषय सर्वकाल है, क्योंकि दिन हो या रात, सब समय सूक्ष्म बादर जीवों की हिंसा हो सकती है तथा भावों की दृष्टि से हिंसा का हेतु राग और द्वेष हैं। जैसे--मांसादि या शरीर आदि के लिए रागवश तथा शत्रु आदि को द्वेषवश मारा जाता है / इसके अतिरिक्त द्रव्यहिंसा-भावहिंसा प्रादि अनेक विकल्प हिंसा के हैं। निष्कर्ष यह है कि शिष्य गुरु के समक्ष प्रतिज्ञाबद्ध होता है कि मैं (उपर्युक्त) सभी प्रकार से प्राणातिपात से निवृत्त होता हूँ। मृषावाद :प्रकार, कारण और विरमण-मृषावाद का विशेष रूप से अर्थ होता है-मन से असत्य सोचना, वचन से असत्य बोलना, और काया से असत्य पाचरण करना, असत्य लिखना, असत्य चेष्टा करना। इसी दृष्टि से मृषावाद (असत्य) चार प्रकार का होता है-(१) सद्भावप्रतिषेध, (2) असद्भाव-उद्भावन, (3) अर्थान्तर और (4) गरे / (1) सद्भावप्रतिषेध–जो विद्यमान है, उसका निषेध करना / जैसे आत्मा नहीं है, पुण्य या पाप नहीं है, बन्ध-मोक्ष नहीं है, इ इत्यादि। (2) असद्भाव-उद्भावन–अविद्यमान (असद्भुत) वस्तु का अस्तित्व कहना अथवा जो नहीं है या जैसा नहीं है, उसके विषय में कहना कि यह वैसा है। जैसे-आत्मा के सर्वगत—सर्वव्यापक न होने पर भी उसे वैसा कहना अथवा आत्मा को श्यामाक तन्दुल के बराबर कहना, इत्यादि / (3) प्रर्थान्तर–किसी वस्तु को अन्य रूप में बताना अथवा पदार्थ का स्वरूप विपरीत बताना / जैसे-~~~-गाय को घोड़ा, और घोड़े को हाथी कहना / (4) गर्दा-जिसके बोलने से दूसरों के प्रति घृणा एवं द्वेष उत्पन्न होने से उनका हृदय दुःखित होता है / जैसे-काने को काना, नपुंसक को हीजड़ा, चोर को 'चोर !' इत्यादि कहना / 62 मखावाट के कारण-असत्य बोलने. लिखने या असत्याचरण करने के चार मुख्य कारण बताए गए हैं--क्रोध से, लोभ से, भय से और हास्य से / वास्तव में मनुष्य क्रोध आदि चार कषायों 61. (क) इयाणि एस एव पाणाइवानो चउविही सवित्थरो भण्णइ, तं.-दव्वरो, खेत्तो, कालो, भावग्रो / दव्वयो".""दोसेण वितियं मारे। -जिन. चूणि, पृ. 147 (ख) दशव. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 64 62. तत्थ मुसाबायो चउविहो, त...--सब्भावपडिसेहो, असब्भूयुब्भावणं, अत्यंतरं, गरहा / तत्थ सब्भावपडिसेहो णाम जहा–णस्थि जीवो, णत्थि पुण्णं पावं, अस्थि बंधो, पत्थि मोक्खो एवमादी। असब्भूयुत्भावणं नाम जहा अस्थि जीवो सव्ववावी, सामाग-तंदुलमेतो वा एवमादी / पयत्थंतरं नाम जो गावि भणइ एसो अस्सोत्ति / गगहा णाम-तहेव काणं काणित्ति, एवमादी। जिनदास चूणि, पृ. 148 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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