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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [111 अणु (सूक्ष्म) एवं स्थूल-सूक्ष्म (छोटी)-जैसे एरण्ड की पत्ती या काष्ठ की चिरपट या तिनका आदि / स्थूल-जैसे सोने का टुकड़ा या रत्न आदि। सचित्त एवं प्रचित्त-पदार्थ तीन प्रकार के हैं—सचित्त, अचित्त और मिश्र / 66 सचित्त, जैसे-मनुष्यादि, अचित्त-जैसे-कार्षापण आदि, मिश्र-जैसे-वस्त्र-प्राभूषणों से सुसज्जित मनुष्य / सर्व-अदत्तादानविरमण : विश्लेषण प्रस्तुत में अदत्तादान के प्रकार बताए हैं. वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से भी अदत्तादान का विचार कर लेना चाहिए-द्रव्यदृष्टि सेअदत्तादान का विषय अल्प, बहुत, सूक्ष्म, स्थूल, सचित्त, अचित्त, आदि द्रव्य अदत्तादान के विषय हैं / क्षेत्रदृष्टि से इसका विषय-ग्राम, नगर, अरण्य आदि स्थान हैं। कालवृष्टि से इसका विषय दिन और द सर्वकाल हैं। भावदष्टि से अल्पमल्य, बहमल्य पदार्थ हैं, अथवा लोभ, मोह, आदि भाव है / इसो-तरह पांच प्रकार के अदत्त हैं-देव-प्रदत्त (देव का या देवाधिदेव तीर्थंकर की प्राज्ञा से बाह्य), गुरु-प्रदत्त, राजा-अदत्त, गृहपति-अदत्त और साधमि-प्रदत्त / इन पांच प्रकार के प्रदत्त में से किसी भी प्रकार का प्रदत्त मन-वचन-काया से, कृत-कारित-अनुमोदितरूप से लेना अदत्तादान है। उससे विरत होकर गुरुदेव के समक्ष प्रतिज्ञाबद्ध होना सर्व-अदत्तादान-विरमण महाव्रत का स्वीकार है।६७ सर्व-मैथुनविरमण : विश्लेषण-केवल रतिकर्म का नाम ही मैथुन नहीं है, अपितु रति-भाव या रागभाव पूर्वक जीव की जितनी भी चेष्टाएँ हैं, वे सभी मैथुन हैं। इसीलिए शास्त्रकारों ने मैथुन के अनेक भेद किये हैं। चित्त में रतिभाव-कामभाव उत्पन्न करने वाले अनेक कारण हैं। उनमें से दो मुख्य हैं--रूप और रूपसहित द्रव्य / रूप के दो अर्थ हैं-(१) निर्जीव वस्तुओं का सौन्दर्य (जैसे मृत शरीर या प्रतिमा आदि) को देख कर, अथवा (2) प्राभूषणरहित सौन्दर्य को देख कर / रूपसहित द्रव्य के भी दो अर्थ हैं--(१) स्त्री आदि सजीव वस्तु के सौन्दर्य प्रादि को देख कर / इसके मुख्य तीन प्रकार हैं-देवांगना सम्बन्धी मैथुन (दिव्य), मनुष्य से सम्बन्धित मैथुन (मानुषिक) और पशुपक्षी प्रादि तिर्यञ्च के साथ मैथुन (तिर्यञ्चसम्बन्धी) / अथवा (2) आभूषणसहित सौन्दर्य को देखकर होने वाला रूपसहगत मैथुन / 68 इस प्रकार द्रव्यदृष्टि से पूर्वोक्त सचेतन, अचेतन सभी द्रव्य मैथुन के विषय हैं / क्षेत्रदृष्टि से-मैथुन का विषय तीनों लोक (ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक) हैं; कालदृष्टि से-उसका विषय दिन और रात्रि प्रादि सर्वकाल हैं, और भावदृष्टि से—मैथुन का हेतु राग (कामराग, दृष्टि राग, स्नेहराग) और द्वेष हैं। इसी प्रकार काम (मैथुनभाव) की उत्पत्ति की 66. 'सप्पं परिमाणतो मुल्लतो वा, परिमाणतो जहा–एगा सुवण्णागुजा मुल्लतो कवड्डियामुरुलं वत्थु / बहु परिमाणतो वा मुल्लतो वा / परिमाणतो-सहस्सपमाणं, मुल्लतो एक वेरुलितं / अण्ण-मूलगपत्तादी अथवा कटू कलिचं वा एवमादी, थूलं सुवण्णखोडी वेरुलिया वा उवगरणं / —जिन. चूणि, पृ. 149 67. जिनदास चणि, पृ. 149 / / 68. (क) दन्वतो रूवेसु वा रूवसहगतेसु वा दम्वेसु, रूवं-पडिमामयसरीरादि, स्वसहगतं सजीवं / -अगस्त्य. चूणि, पृ. 84 (ख) रूवसहगयं तिविहं भवति, तं.-दिव्वं माणुसं तिरिक्खजोणियं ति / / प्रहवा रूवं भूसणवज्जियं, सहगयं भूसणेण सह / -जिन. चूणि, पृ. 150 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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