________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] प्रकट करना (3) जिनदास महत्तर के अनुसार-निन्दा (आत्मनिन्दा) है-पहले जो अज्ञानभाव से दोष या अपराध किया हो, उसके सम्बन्ध में पश्चात्तापपूर्वक हृदय में दाह का अनुभव करना, जैसे—मैंने बहुत बुरा किया, बुरा कराया, बुरे का अनुमोदन किया इत्यादि / और गर्दा है-भूत, वर्तमान और अनागत काल में उस अपराध को न करने के लिए अभ्युद्यत होना / 44 अप्पाणं वोसिरामि : तात्पर्य इसका शब्दशः अर्थ है-आत्मा का व्युत्सर्ग-त्याग करता हूँ। परन्तु आत्मा अपने आप में त्याज्य कैसे हो सकती है, उसकी अतीत और वर्तमान की असत् (सावद्य) प्रवृत्तियाँ या पापरूप आत्मा ही त्याज्य होती है, साधना की दृष्टि से हिंसा आदि सावध प्रवृत्तियाँ त्याज्य होती हैं, जिनसे आत्मा को कर्मबन्धन होता है / अतः 'अप्पाणं वोसिरामि' का भावार्थ होगा मैं अतीतकाल में दण्ड-प्रवृत्त (सावध या पापयुक्त प्रवृत्ति में प्रवृत्त) अात्मा (आत्मपरिणति) का त्याग (व्युत्सर्ग) करता हूँ।४५ प्रश्न हो सकता है कि 'देहलीदीपकन्याय' से यहाँ अतीतकालीन पाप (दण्ड) युक्त प्रात्मा का ही प्रतिक्रमण यावत् व्युत्सर्ग किया जाता है, वर्तमान दण्ड (पाप) का संवर और भविष्यत्कालीन पाप (दण्ड) का प्रत्याख्यान इससे नहीं होता / इसका समाधान प्राचार्य हरिभद्र करते हैं कि न करेमि (न करोमि) इत्यादि से वर्तमान के संवर और भविष्यत् के प्रत्याख्यान की भी सिद्धि हो जाती है। 44. (क) 'योऽसौ त्रिकालविषयो दण्डस्तस्य सम्बन्धिनमतीतमक्यवं प्रतिक्रामामि, न वर्तमानमनागतं वा, प्रतीत्यस्यैव प्रतिक्रमणात, प्रत्युत्पन्नस्य संवरणादनागतस्य प्रत्याख्यानादिति "प्रतिकामामीति भूताद्दण्डानिवर्ते ऽहमित्युक्त भवति / (ख) निन्दामि गर्हामोति-प्रत्राऽऽत्मसाक्षिकी निन्दा, परसाक्षिकी गर्दी-जुगुप्सेत्युच्यते / --हारि. वृत्ति, पत्र 144 (ग) "ज पुचमण्णाणेण कतं तस्स जिंदामि, गिदि कुत्सायाम् इति कुत्सामि, गर्ह परिभाषणे इति पगासी करेमि / " - अगस्त्यचूणि, पृ. 78 (घ) जं पुण पुब्बि अन्नाणभावेण कयं तं जिंदामि वा-'हा ! दुट्ठ कयं, हा ! दुठ्ठ कारियं, अणुमयं हा दुर्छ / अतो अंतो डज्झइ, हिययं पच्छा णुतावेण / 'गरिहामि' णाम तिविहं तीताणागत-वट्टमाणेसु कालेसु अकरणयाए अब्भुट्ठमि / -जिनदास चूणि, पृ. 143 45. (क) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. 134 (ख) प्रात्मानं—प्रतीतदण्डकारिणमश्लाघ्यं व्युत्सृजामि इति / विविधार्थो विशेषार्थो वा विशब्द: उच्छब्दो भृशार्थः सृजामि-त्यजामि / ततश्च विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि-व्युत्सृजामोति / -हारि. वृत्ति, पत्र 144 (ग) दशव. (प्रा. आत्मारामजी), पृ. 70 (घ) दशवै. (प्राचारमणिमंजूषा) भा. 1, पृ. 233 46. (क) प्राह-पद्य वमतीतदण्डप्रतिक्रमणमात्रमस्यैदम्पर्य, न प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागत-प्रत्याख्यानं चेति, नैतदेवं, न करोमीत्यादिना तदुभयसिद्ध रिति / -हारि. बु., पत्र 144 (ख) दशवं. (आचारमणिमंजूषा) भा. 1, पृ. 233, (ग) दशवं. (प्रा. आत्मारामजी म.), पृ. 70 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org