________________ 98] [दशवकालिकसूत्र अनुमोदन कहलाता है / कृत, कारित और अनुमोदन ये तीनों दण्ड-समारम्भ क्रियाएं हैं, इसलिए जितना भी किया, कराया या अनुमोदन किया जाता है, वह मन, वचन और काया के माध्यम से किया जाता है / मन, वचन और शरीर, ये तीनों एक दृष्टि से साधन = करण भी कहे जा सकते हैं / प्रस्तुत में निष्कर्ष यह है कि दण्डसमारम्भ के मन, वचन और काया से कृत, कारित और अनुमोदन के भेद से 1 विकल्प (भंग) हो जाते हैं—(१) दण्डसमारम्भ मन से करना, कराना और अनुमोदन करना (2) दण्डसमारम्भ वचन से करना, कराना और अनुमोदन करना। (3) दण्डसमारम्भ काया से करना, कराना और अनुमोदन करना / प्रस्तुत मूलपाठ में पहले कृत, कारित और अनुमोदन से दण्डसमारम्भ करने का निषेध किया गया है, किन्तु उसके साथ मन से, वचन से और काया से शब्द नहीं जोड़े गये हैं, किन्तु बाद में 'तिविहं तिविहेणं' पदों का संकेत करके 'मणेणं वायाए काएणं' एवं 'न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्न न समणुजाणामि' का उल्लेख करके शास्त्रकार ने इसे स्पष्ट कर दिया है।४३ दण्ड शब्द को हिंसाप्रयोजक मानकर अगस्त्य चणि में हिंसा के आधार पर इन नौ भंगों का स्पष्टीकरण किया है--(१) मन से दण्डसमारम्भ करता है--स्वयं मारने का सोचता है कि इसे कैसे मारू ? मन से दण्डसमारम्भ कराना, जैसे-वह इसे मार डाले, ऐसा मन में सोचना / मन से अनुमोदन-कोई किसी को मार रहा हो, उस समय मन ही मन राजी (सन्तुष्ट) होना, इसी तरह वचन से हिंसा करना-जैसे इस प्रकार का वचन बोलना—जिससे दूसरा कोई मर जाए / किसी को मारने का आदेश देना वचन से हिंसा कराना है। इसी प्रकार 'अच्छा मारा' यों कहना, वचन से हिंसा का अनुमोदन करना है / स्वयं किसी को मारे-यह काया से स्वयं हिंसा करना है, किसी को मारने का हाथ आदि से संकेत करना काया से हिंसा कराना है, और कोई किसी को मार रहा हो, उसकी शारीरिक चेष्टानों से प्रशंसात्मक प्रदर्शन करना-हिंसा का काया से अनुमोदन है। ___'तस्स० पडिक्कमामि, निदामि गरिहामि०'--प्रकरणीय कार्य का प्रत्याख्यान (परित्याग) करने की जैनपद्धति का क्रम इस प्रकार है-(१) अतीत का प्रतिक्रमण, (2) वर्तमानकाल का संवर और (3) भविष्यत्काल का प्रत्याख्यान / इस दृष्टि से यहाँ 'तस्स' शब्द दिया है, वह 'देहलीदीपकन्याय' से 'निदामि गरिहामि' के साथ भी सम्बन्धित है / अर्थात् प्रतिक्रमण का अर्थ है—पापकर्मों से निवृत्त होना / तात्पर्य यह है कि गतकाल में जो दण्ड समारम्भ मैंने किये हैं उनसे निवृत्त होता-वापस लौटता हूँ / 'निन्दामि' का अर्थ है-निन्दा करता हूँ। यह निन्दा किसी दूसरे की नहीं, स्वयं की निन्दा है, जो पश्चात्तापपूर्वक, आत्मालोचनपूर्वक स्वयं की जाती है / 'गर्हामि' का अर्थ है—गर्हाघृणा करता हूँ / अर्थात्-जो भी पाप या दण्डसमारम्भ मुझसे हुए हैं, उनसे घृणा करता हूँ। निन्दा और गहरे में अन्तर-निन्दा अात्मसाक्षिकी होती है और गहरे (जुगुप्सा) परसाक्षिकी। (2) अगस्त्य चणि के अनुसार—पहले जो अपराध या पाप अज्ञानवश किये हों, उनकी निन्दा यानी कुत्सा करना / गर्दा का अर्थ है-उन दोषों-अपराधों को गुरुजनों या सभा के समक्ष 43. (क) दशवै. अगस्त्य., चूणि पृ. 78 (ख) दशवै. जिन. चूर्णि, पृ. 142-143 (ग) तिस्रो विधा-विधानानि कृतादिरूपा अस्येति त्रिविध-दण्ड इति गम्यते तम / त्रिविधेन-करणेन मनसा वचसा कायेन / —हारि. टी., प. 143 / (घ) अ. चू., पृ. 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org