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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार 'दण्ड' का अर्थ--'किसी भी प्राणी के शरीरादि का निग्रह (दमन) करना है / हरिभद्रसूरि और जिनदास महत्तर के अनुसार दण्ड का अर्थ--संघट्टन, परितापन आदि है / वस्तुतः मूलपाठ से ध्वनित होने वाला अर्थ बहुत ही व्यापक है-मन-वचन-काया की कोई भी प्रवृत्ति, जो दूसरे प्राणी के लिए संतापदायक या दुःखोत्पादक हो, वह सब दण्ड है।' दण्ड का सम्बन्ध यहाँ केवल हिंसा से ही नहीं है, अपितु असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह से भी है / कौटिल्य ने दण्ड के तीन अर्थ किये हैं-वध, परिक्लेश और अर्थहरण / वध में ताड़न, तर्जन, प्राणहरण बन्धन आदि हिंसाजनक व्यापार आ जाते हैं। अर्थहरण में धन या किसी पदार्थ का हरण चौर्य एवं परिग्रह में आ जाते हैं। तथा परिक्लेश में हिंसा आदि पांचों ही प्रकार से दूसरे को दुःख पहुँचाया जाता है / यद्यपि ये सभी दण्ड्य प्रवृत्तियाँ दूसरों के लिए परितापजनक होने से हिंसा के दायरे में आ जाती हैं और असत्य, चौर्य आदि भी दूसरों के लिए दुःखोत्पादक होने से एक प्रकार से हिंसा के ही अन्तर्गत हैं / यहाँ समारम्भ का अर्थ है—करना या प्रवृत्त होना।' 'इति' शब्द : पांच अर्थों में प्रस्तुत सूत्र (41) में प्रारम्भ में 'इच्चेसि' शब्द के अन्तर्गत 'इति' शब्द पांच अर्थों में व्यवहृत होता है—(१) हेतु-(यथा-वर्षा हो रही है, इस कारण दौड़ रहा है ), (2) ऐसा या इस प्रकार (यथा-उसे अविनीत, ऐसा कहते हैं, अथवा इस प्रकार महावीर ने कहा), (3) सम्बोधन-(यथा--धम्मएति =हे धार्मिक !), (4) परिसमाप्ति-(इति भगवइसुत्तं सम्मत्तं) और (5) उपप्रदर्शन (पूर्व वृत्तान्त या पुरावृत्त को बताने के लिए, यथा—इच्चेए पंचविहेववहारे--ये पूर्वोक्त पांच प्रकार के व्यवहार हैं / ) प्रस्तुत सूत्र में 'इति' शब्द 'हेतु' अथवा 'उपप्रदर्शन' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है / जैसे कि इससे पूर्व कहा गया था कि समस्त प्राणी सुखाभिकांक्षी हैं, इसलिए अथवा इस प्रकार पूर्वोक्त षड्जीवनिकायों के प्रति / 42 प्रतिज्ञासूत्रों को व्याख्या-(१) जावज्जीवाए--जीवनपर्यन्त, दण्डप्रत्याख्यान अथवा महाव्रतों की प्रतिज्ञा यावज्जीवन-जीवनभर के लिए होती है। (2) तिविहं तिविहेणं-पागम की भाषा में इन्हें तीन करण और तीन योग कहा जाता है। तिविहं को तीन करण-कृत, कारित और अनुमोदित तथा तिविहेणं को तीन योग-मन, वचन और काया का व्यापार (प्रवृत्ति या कर्म) कहा जाता है। जब कोई भी दण्ड या हिंसा आदि पाप स्वयं किया जाता है, तो उसे 'कृत' कहते हैं, दूसरों से कराया जाता है तो उसे कारित कहते हैं और करने वाले को अच्छा कहना या उसका समर्थन करना 41. (क) 'दंडो सरीरादिनिग्गहो।' अगस्त्य. चूणि., पृ. 78 (ख) 'दंडो संघट्टण-परितावणादि / ' -जिन. चूणि., पृ. 142 (ग) 'वधः परिक्लेशोऽर्थहरणं दण्ड इति / ' -----कौटिलीय अर्थशास्त्र, 2 / 10 / 28 42. (क) इतिसद्दो अणे मेसु प्रत्थेसु वट्टइ, तं.---प्रामंतणे परिसमत्तीए उवप्पदरिसणे य / " ---जिन. चूर्णि, पृ. 142 (ख) ...."हेती, एवमत्थो इति, ""आद्यर्थे परिसमाप्तौ,""प्रकारे " / ' –अ. चू., पृ. 78 / (ग) इच्चेसि इत्यादि-सर्वे प्राणिन: परमधर्माण इत्यनेन हेतुना। -हारि. वृत्ति, पत्र 143 (घ) इह इतिसहो उवप्परिसणे दब्बो (यथा-) चे एते 'जीवाभिगमस्स छभेया भणिया।' --जि. चू., पृ. 142 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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