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________________ 96] [वशवैकालिकसूत्र होता है, अस्वच्छ व विषम भूमि पर प्रासाद असुन्दर और अस्थिर होता है, इसी तरह मिथ्यात्वरूपी कड़े कर्कट को साफ किये बिना साधक की जीवन-भूमि पर महाव्रतरूपी प्रासाद की स्थापना कर देने से वह स्थिर और सुन्दर नहीं होता। (3) जिस प्रकार रुग्ण व्यक्ति को औषध देने से पूर्व उसे वमनविरेचन करा देने से औषध लागू पड़ जाती है, उसी प्रकार जीवों के प्रति अश्रद्धा का वमन-विरेचन करा देने से उनमें प्रगाढ़ व शुद्ध विश्वास होने पर महाव्रतारोहण किया जाता है, तो उसके महावत स्थिर एवं शुद्ध रहते हैं / * दण्डसमारम्भ के त्याग का उपदेश और शिष्य द्वारा स्वीकार [41] इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभेज्जा, नेवऽनोहि दंड समारंभावेज्जा, दंडं समारंभंते वि अन्न न समणुजाणेजा। जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं, न करेमि, न कारवेमि,x करेंतं पि अन्न न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि // 10 // अर्थ--[१] (समस्त प्राणी सुख के अभिलाषी हैं) "इस लिए इन छह जीवनिकायों के प्रति स्वयं दण्ड-समारम्भ न करे, दूसरों से दण्ड-समारम्भ न करावे और दण्डसमारम्भ करने वाले अन्य का अनुमोदन भी न करे / " (शिष्य द्वारा स्वीकार-) (भंते ! मैं) यावज्जीवन के लिए तीन करण एवं तीन योग से (मन-वचन-काया से दण्डसमारम्भ) न (स्वयं) करूगा, न (दूसरों से) कराऊंगा और (दण्डसमारम्भ) करने वाले दूसरे प्राणी का अनुमोदन भो नहीं करूंगा। भंते ! मैं उस (अतीत में किये हुए) दण्डसमारम्भ से प्रतिक्रमण करता हूँ, उसको निन्दा करता हूँ, गर्दी करता हूँ, और (दण्डप्रवृत्त) आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ // 10 // विवेचन--प्रस्तुत 41 वें सूत्र के पूर्वार्द्ध में दण्डसमारम्भ के त्रिविध-त्रिविध त्याग का गुरु द्वारा शिष्य को उपदेश किया गया है तथा उत्तरार्द्ध में शिष्य द्वारा उस त्याग को विधिपूर्वक स्वीकार करने का प्रतिपादन है / दण्डसमारम्भः विशिष्ट अर्य--दण्ड और समारम्भ दोनों जैन शास्त्र के पारिभाषिक शब्द हैं। राजनीतिशास्त्र में 'दण्ड' शब्द अपराधी को सजा देने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, वह सजा शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक कई प्रकार की हो सकती है / धर्मशास्त्र में संघीय व्यवस्था या व्रत-नियमों का भंग या अतिक्रमण करने वाले साधक को भी तप, दीक्षाछेद अथवा सांधिक बहिष्कार के रूप में दण्ड दिया जाता है। परन्तु यहाँ 'दण्ड' शब्द इनसे भिन्न अर्थों में प्रयुक्त है / * (क) जिनदास. चूणि. पृ. 143-144 (ख) हारि. वृत्ति, पत्र 145 x पाठान्तर-करतं पि / + 'इच्चेसि' से लेकर 'न समणुजाणेज्जा' तक का पाठ विधायक 'भगवदवचन' या 'गुरुवचन' है। उससे आगे का 'अप्पाणं वोसिरामि' तक के पाठ में शिष्य द्वारा दण्डसमारम्भत्याग का स्वीकार है ।--सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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