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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित वायुकायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा नहीं करता, वह पुण्यपाप से अनभिगत होने के कारण उपस्थापन के योग्य नहीं होता / / 4 / / जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित वनस्पतिकायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा नहीं करता, वह पुण्य-पाप से अनभिगत होने से उपस्थापन के योग्य नहीं होता / / 5 / / जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित सकायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा नहीं करता, वह पुण्यपाप से अनभिगत होने के कारण उपस्थापन (महाव्रतारोहण) के योग्य नहीं होता / / 6 / / जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित पृथ्वीकायिक जीव (के अस्तित्व) में श्रद्धा करता है, वही पुण्य-पाप से अभिगत होने के कारण उपस्थान के योग्य होता है / / 7 / / जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित अकायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा करता है, वही पुण्य-पाप से अभिगत होने के कारण उपस्थापन के योग्य होता है / / 8 / / जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित तेजस्कायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा करता है, वही पुण्यपाप से अभिगत होने के कारण उपस्थापन के योग्य होता है / / 6 / / जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित वायुकायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा करता है, वही पुण्य-पाप से अभिगत होने के कारण उपस्थापन के योग्य होता है / / 10 // जो जिनवरों द्वारा प्ररूपित वनस्पतिकायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा करता है, वही पुण्य-पाप से अभिगत होने के कारण उपस्थापन के योग्य होता है / / 11 / / जो जिनवरों द्वारा प्ररूपित त्रसकायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा करता है, वही पुण्य-पाप से अभिगत होने के कारण उपस्थापन (महाव्रतारोहण) के योग्य होता है / / 12 / / ] विवेचन-षडजीवनिकाय के ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न हो उपस्थापनाह- इससे पूर्व षड्जीवनिकायों का वर्णन, शिष्य को विश्व के समग्र जीवों का ज्ञान कराने के लिए है। प्रस्तुत 12 गाथाएँ, जो कोष्ठकान्तर्गत हैं, समग्र जीवों के अस्तित्व में विश्वास (श्रद्धान) के लिए हैं। जीवों के अस्तित्व के प्रति श्रद्धालु व्यक्ति पुण्य-पाप से अनभिज्ञ होता है। वह एकेन्द्रिय (पंच स्थावर) जीवों के अस्तित्व में शंकाशील या अनजान होता है। इस प्रकार जीवों के अस्तित्व के प्रति अश्रद्धालु साधक प्राणातिपात आदि के रूप में जो सूक्ष्म दण्ड हैं, उनका भी परित्याग नहीं कर सकता। अतः वह महाव्रतोपस्थापन के योग्य नहीं होता। महाव्रतों को उपस्थापना (महाव्रत. स्वीकार प्रतिज्ञा) से पूर्व षड्जीवनिकायों (जीवों) के सम्यग्ज्ञान और उनमें सम्यक् श्रद्धान की कितनी आवश्यकता है ? इसे बताने के लिए जिनदास महत्तर तथा प्राचार्य हरिभद्र तीन दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं-(१) जैसे मलिन वस्त्र पर सुन्दर रंग नहीं चढ़ता, स्वच्छ वस्त्र पर ही सुन्दर रंग चढ़ता है, वैसे ही जिसे जीवों का ज्ञान और उनके अस्तित्व में श्रद्धान (विश्वास) नहीं होता, उन पर अहिंसादि महाव्रतों का सुन्दर रंग नहीं चढ़ सकता, अर्थात्-वे महाव्रतोपस्थापन के अयोग्य होते हैं / परन्तु जिन्हें जीवों का ज्ञान तथा उनके अस्तित्व में श्रद्धान होता है, उन्हीं पर महाव्रतों का सुन्दर रंग चढ़ सकता है, अर्थात् वे महाव्रतोपस्थापन के योग्य होते हैं। उन्हीं के महाव्रत सुन्दर और सुस्थिर होते हैं / (2) जिस प्रकार प्रासाद निर्माण के पूर्व जमीन को स्वच्छ और समतल कर देने से भवन स्थिर और सन्दर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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